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रणथंभोरयात्रा ६३
छिद्रान्वेषणतत्पराः क्वचिदहो लब्धावकाशाः पुनश्छायाभंगमकार्षुरात्मपतनात्तस्या हि धिक्कामुकम् ।।७।।
सूर्य की किरणें वहां की भूमि का स्पर्श करने के लिए चेष्टा कर रही थीं किन्तु सघन वृक्षों के पत्तों को निश्छिद्रता के कारण वे सफल नहीं हो रही थीं, जिस प्रकार कामी पुरुष साध्वी स्त्री का स्पर्श करने में सफल नहीं होते। कहींकहीं छिद्रान्वेषी किरणें भूमि-स्पर्श का अवकाश पाकर उसकी छाया (पक्ष में शोभा) का भंग कर रही थीं। किन्तु वे ऐसा अपने आत्म-पतन के द्वारा ही कर पा रही थीं। कामुक व्यक्ति को धिक्कार है।
शाल; खण्डहरः पुराणविभुतासाक्ष्यं प्रसर्पन्निव, लञ्चाया अवधेः प्रतीक्षक इव स्वात्मानमारक्षति । सिंहद्वारगतैश्च राजपुरुषैः संरक्षिते वर्त्म नि,
शक्तो नैव पलायितुं तत इतो झम्पामपि प्राश्रयत्।।८॥ वहां का परकोटा खंडहर था। वह अपनी प्राचीन विभुता को प्रकट कर रहा था। वह अपने आप की रक्षा यह मान कर रहा था कि उसके द्वारा ली हुई लंचा की अवधि मानो पूरी नहीं हुई हो। प्रवेश-द्वार पर खड़े सिपाहियों द्वारा संरक्षित मार्ग से वह दौड़ नहीं सकता इसलिए इधर-उधर उसने झंपापात भी किया है।
तन्मन्ये विजनस्थितैः शिखरिणामभ्रंलिहैः सानुभिः, कामं
क्रूरमुखैरसंयतकचैवक्षवजव्याजतः। लव्धुं नागरसभ्यतां बहुगुणामास्थापितो मूर्धनि, प्राकारः कथमन्यथाऽत्र विषमे तद्भित्तयः संयुताः ॥६॥ मैं मानता हूं कि उस विजन प्रदेश में स्थित पर्वतों के अत्यन्त ऊंचे और तीखी नोक वाले शिखर वृक्षों के मिष से इधर-उधर बिखरे केशों वाले होकर अनेक गुणों वाली नगर-सभ्यता को पाने के लिए अपने मस्तक पर प्राकार को धारण कर रहे थे; अन्यथा उस विषम पर्वत पर उस प्रकार की भित्तियां संयुत कैसे होती ?
आरोहतां तत्र पदो विचिन्वतां, श्वासः पुरोधावितुमाशु लग्नः ।
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