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________________ ६२ अतुला तुला स्मृति हुई। क्योंकि उस समय हम कुछ दूर ( भगवतगढ में ) थे । किन्तु उनकी कृपापूर्ण दृष्टि से हम देखे जा रहे थे । यह सच है कि कोई दूर हो या पास, वात्सल्य कभी भेद नहीं करता । दुर्गे नृणां नो सुकरः प्रवेशः, चित्ते गुरो: शश्वदनाश्रवाणाम्। मार्गाः समन्तादुपलैरुपेताः, क्रूरेविकल्पैरिव दुष्टसत्त्वाः ॥४॥ जिस प्रकार गुरु के चित्त में अविनीत शिष्यों का प्रवेश सुकर नहीं होता, उसी प्रकार उस दुर्ग में मनुष्यों का प्रवेश सुकर नहीं था । जिस प्रकार दुष्ट प्राणियों के मन क्रूर विकल्पों से भरे रहते हैं, उसी प्रकार वहां के सभी मार्ग उपल खंडों से भरे पड़े थे । यत्प्रोन्नतपर्वतानासर्वतोऽपि । मन्ये, भीत्येव मन्तर्गतं राजति संरक्षक व्याजमुपेत्य सेनाधिपोन्तश्च मुसंस्थितोऽस्ति ॥ ५॥ वह दुर्ग डर के कारण उस उन्नत पर्वतमाला के बीच में बैठा हुआ था, मानो संरक्षक होने के बहाने सेनापति अपनी सेना से घिरा हुआ बैठा हो । कूर्दद्भिः कपिभिश्चिरं चलदला शाखानुशाखं प्रियं, कल्लोलः सरसीव बुद्धिरथवा संकल्पजालैरिव । मार्गञ्चोभयतो घना खगकुलैश्छन्ना तरूणां ततिरागच्छत्पथिकैरिव प्रणयतो वार्त्तापरेवानता ॥ ६॥ जैसे ऊर्मिमाला से तालाब और संकल्पजाल से बुद्धि प्रकंपित होती है, वैसे ही एक शाखा से दूसरी शाखा पर छलांग भरते हुए बंदरों के द्वारा जिसके पत्ते हिल रहे थे तथा जो पक्षी समूह से आच्छन्न थी, वह वृक्षों की सघन श्रेणी आने वाले पथिकों के साथ प्रेमपूर्ण वार्ता करने के लिए पथ के दोनों ओर झुक रही थी । Jain Education International संस्प्रष्टुं सवितुः करा महिमलं संचेष्टमाना अपि, निश्छिद्रैश्छदनैः प्रसह्य विमुखा साध्वीं यथा कामिनः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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