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१५ : रणथंभोरयात्रा
वर्षाकालं युगलमवसद् यत्र भिक्षुर्मुनीशस्तन्मार्गोऽयं नयनविषयो नाप्यभूदुत्तरायः । एतद् युक्तं किमिति सुपथां प्रार्थनां धारयित्वा,
संघेनामा रणदभंवरे पूज्यपादा अगच्छन् ॥१॥ तेरापंथ के प्रथम आचार्य भिक्षु ने जहां दो चातुर्मास बिताए थे, वहाँ उत्तरवर्ती आचार्यों ने उसका रास्ता ही नहीं देखा। वहां पहुंचाने वाले विभिन्न मार्गों ने कहा-'क्या यह उचित है ?' उनकी प्रार्थना हृदय में धारण कर आचार्यप्रवर श्री तुलसी अपने संघ के साथ 'रणदभंवर' पधारे।
योगो जातो यामयुग्मं नगेन, प्रत्येक स्यान् मूल्यवान् यत्क्षणोऽपि । नो बुद्धयन्ते तद्गतामर्घतां ये,
ते तेनापि त्यज्यमानास्तदैव ॥२॥ आचार्यश्री रणदभंवर पर दो प्रहर तक ठहरे । क्योंकि प्रत्येक क्षण का अपना मूल्य होता है । जो लोग समय के मूल्य को नहीं समझते, वे उसके द्वारा उसी समय ठुकरा दिए जाते हैं।
एका गीतिळरचि मुनिपर्मन्दिरे पशुपाणे:, स्तोकैः शब्दैः सुकृतिसुलभं वर्णितं दुर्गवृत्तम् । दूरस्थास्ते वयमिति कुतो दृश्यमानाः सुदृष्ट्या,
वात्सल्यं नो रचयति भिदां दूरतः पार्श्वतो वा॥३॥ आचार्यश्री ने वहां शिव मन्दिर में एक गीतिका रचीं। उसमें थोड़े शब्दों में दुर्ग का वृत्तान्त सुन्दर ढंग से वर्णित है। उस गीतिका के गान के समय हमारी
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