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जयपुरयात्रा ५६
आचार्यश्री ने धर्म का सार प्रस्तुत करते हुए कहा-'सत्तात्मक और अर्थात्मक धर्म के साथ हमारा विरोध है। हमारा सिद्धांत है कि हिंसा के प्रतिकार के लिए हिंसा ग्राह्य नहीं होनी चाहिए। यदि वह ग्राह्य हो तो इसमें और हिंस्र पशु में अन्तर ही क्या रहेगा ? हिंसा से हिंसक जीव का नाश और दमन हो सकता है, किन्तु उसका प्रतिकार नहीं होता। अहिंसा से अहिंसा को प्राण मिलता है।'
उच्चैरुच्चैः सघनजलदा आवृतानन्तलीला:, प्रादुर्भूताः पदि पदि जनैः सत्कृता भूरिनीराः। भाराक्रान्ता विहितनतयो वातसंकेतितायां,
विद्युत्दीप्रा दिशि गतिमिता गजिनृत्यन्मयूराः ।।२१॥ आकाश में बहुत ऊंचे, पानी से भरे मेघ उमड़ आए। उन्होंने आकाश को डंक दिया। स्थान-स्थान पर लोगों ने उनका सत्कार किया। पानी से भारी होने के कारणं वे नीचे झुके और वायु के द्वारा संकेतित दिशा में गति करने लगे। उनके साथ बिजली का दीप था और उनके गर्जन को सुनकर मयूर नाच रहे थे।
वर्षारम्भः शमरसमयः पूज्यवाण्या प्रसूतो, हर्षोल्लोलानकृत मनुजान् सर्वसंतापहारी। मेघाभावे कृतदृढपदा अन्तरुच्छ्वासवाष्पा,
प्रश्नीभूय न्यधिषततमां बाह्यरूपं समन्तात् ।।२२।। वर्ष का आरंभ आचार्य-प्रवर की शांत रसमय वाणी से प्रारंभ हुआ। यह वाणी सभी संतापों का हरण करने वाली थी। उसने मनुष्यों को हर्षान्वित कर दिया। उनके आन्तरिक उच्छ्वास का वाष्प मेघ के अभाव में काफी दृढ़ हो चुका था । उसको उन्होंने प्रश्नों का बाह्यरूप देकर प्रस्तुत किया।
महाविद्यागारे प्रवचनमभूत् सार्वजनिक, घनारब्धा स्पर्धा सघनजलधाराभिरुदिता। नृणां गत्यावेगस्तमपि समबाधिष्ट सुतरां, यतः स्पर्धा स्पर्धा जनयति निजोद्भूतिनियमात् ॥२३॥
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