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५८ अतुला तुला
सपदि तेन . च शून्यमपूर्यत,
भवति तद्विलये ह्य दयश्चिदाम् ।।१६।। आचार्यश्री जयपुर पधारे। आगन्तुक अतिथि की विजय को शब्दायित करने के लिए जयघोष होने लगा। सहसा सारा आकाश उस जयघोष से भर गया। उसके विलीन होने पर चैतन्य का उदय होता है।
ये प्रार्थनायां प्रचुराश्रुवाहाः, संप्रत्यहो ते प्रमुदश्रुवाहाः । हर्षे विषादेऽपि समा प्रवृत्तिः,
द्रष्टुमहच्चित्रमथानने न॥१७।। आचार्यश्री के पदार्पण की प्रार्थना के समय लोगों के जो अश्रु-प्रवाह थे, वे आज हर्ष के प्रवाह में बदल गए। आचार्यप्रवर हर्ष और विषाद में समप्रवृत्ति वाले हैं किन्तु दर्शक व्यक्तियों के चेहरे पर वह वृत्ति नहीं थी, यह आश्चर्य है।
आद्यो वासोऽजनि मुनिपतेर्तोलियावासमध्ये, तस्मिन्नेको मुनिपसविध साम्यवादी समेतः । धर्मव्याख्या सुमतिसुलभा पूज्यपादैरदायि, सोऽवक कोस्मिन् भवति विमतिर्लोककल्याणहेतौ ॥१८॥
जयपुर में आचार्यप्रवर का पहला निवास 'ठोलिया' भवन में हुआ। उस दिन आचार्यश्री के पास एक साम्यवादी व्यक्ति आया। उस समय पूज्यश्री ने धर्म की बुद्धिगम्य व्याख्या प्रस्तुत की। यह सुनकर उसने कहा-ऐसे कल्याणकारी धर्म से कौन व्यक्ति विमुख हो सकता है ?
सत्तात्मकेन द्रविणात्मकेन, धर्मेण दध्मो नितरां विरोधम् । हिंसाप्रतीकारकृतेऽपि हिंसा, ग्राह्या न वा श्वापदवृत्तयः स्मः ।।१६।। स्याद् हिंसया हिंसकजीवनाशदमो न हिंसाप्रतिकार एवम् । अहिंसया जीवनमेत्यहिंसा, व्याहारि सारं मुनिनायकेन ॥२०॥
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