________________
जयपुरयात्रा ५७
चूरूपूर्यां गमनमभवत् साधयत् साधुभावान्, स्थित्यां नास्ते गतिरिह गतावेव सा लब्धरूपा। मन्ये भाग्यं न गतिविकला यत् स्थितिश्चान्यथा तु,
प्रत्ना नूत्ना अपि च जरिणो नार्भकाः स्युः कदाचित् ।।१३।। श्रेष्ठ भावों का सर्जन करता हुआ आचार्यश्री का आगमन चूरू नगर में हुआ । स्थिति में गति नहीं होती किन्तु गति में स्थिति होती है। यह सौभाग्य है कि गति से विकल स्थिति नहीं होती अन्यथा नए पुराने और बालक बूढ़े कभी नहीं होते।
केचिद् ग्रामाश्चरण विषयाः पार्श्वगा . अप्यजाताः, किं पार्श्वस्थो भवति विषयो, नेत्रयोः पक्ष्मदेशः । साक्षाद् दृष्टस्तदिह मुकुरे नूनमानन्ददायी,
तत्राप्यासीद् विहरणमलं किन्न तद्पकल्प्यम् ॥१४॥ कई गांव अत्यन्त पास में थे, किन्तु आचार्य-प्रवर का वहां पदार्पण नहीं हुआ। क्या आंख के निकटवाला पक्ष्म का भाग कभी आंख का विषय बना है ? किन्तु जब वह कांच में साक्षात् दीख पड़ता है, तब अवश्य ही वह आनन्ददायी होता है। दर्पण में पक्ष्मदेश को देखने की भांति उन गांवों में भी विचरण क्यों नहीं हुआ-यह प्रश्न बना ही रहा। नाना
ग्रामैविविधरुचिगैर्मानवैर्मानरम्यैना मागैर्बहुविधमृदां स्पर्शनैर्नैकवातैः।
नीरैर्नवनवगृहैकचिन्ताप्रवाहैः, सात्म्यं लब्ध्वा श्रमणपतिभिर्योगिवृत्त्या व्यहारि ॥१५॥ विभिन्न गांव, विविध रुचि और श्रेष्ठ मान वाले मनुष्य, विभिन्न मार्ग, बहु प्रकार की मिट्टी का स्पर्श, विविध प्रकार की हवाएं और पानी, नए-नए घर और भिन्न-भिन्न विचार-इन सबके साथ एकात्मकता स्थापित करते हुए आचार्य श्री योगी की वृत्ति से विहार करने लगे।
जयपुरे जयघोष उदच्छलद्, विजयमागमिनं ध्वनितुं ध्रुवम् ।
ग्रामावावर
नाना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org