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________________ ५६ अतुला तुला आचार्य तुलसी अपने गण के साथ उसी प्रकार रतनगढ़ पधारे, जिस प्रकार सहिष्णु और सज्जन व्यक्तियों के मन में शान्ति का पदार्पण होता है । जिस व्यक्ति की दृष्टि लक्ष्य पर होती है, उसके लिए लक्ष्य प्राप्ति दुर्लभ नहीं होती । प्रथितधनिकश्चिन्तया चान्तचेताः, निःसन्तानः नैवाद्राष्टां धान्याभावे विकलकृषिको दग्धचेतः क्रियश्च । वियतिनिकरं केवलं सद्घनानां, स्याद्वा नो वा सघन जडतापीति पर्यैक्षिषाताम् ॥ १० ॥ निःसन्तान, यशस्वी धनिक चिन्तातुर होकर आकाश को देखता है । धान्य के अभाव से व्याकुल किसान का हृदय जल उठता है और वह भी निष्क्रिय होकर आकाश को निहारता है। दोनों ने आकाश में केवल मेघ-समूहों को ही नहीं देखा किन्तु वे बरसते हैं या नहीं बरसते - एतद्विषयक उनकी जड़ता को भी देखा । कहीं मेघ अनावश्यक बरस जाते हैं और कहीं आवश्यक होने पर भी नहीं बरसते । ग्रीष्म प्रकृतिरुचितं लङ्घते सावलेप, तथापि । प्रतीतो, प्रचुरमतनोच्चैत्रमासे प्रायो उष्णस्तापं लोकैर्नूनं नवकिसलयैः लोप्तुं शक्या न खलु सहजा सज्जनाभा ॥ ११ ॥ गरम प्रकृति के लोग प्रायः अभिमान के लेप से औचित्य का उल्लंघन कर डालते हैं। ग्रीष्म चैत्रमास में भी भयंकर ताप देने लगा। फिर भी लोगों ने नए किसलयों के कारण उस समय को पुष्पकाल ( वसन्त ) ही माना । सच यह है कि दुर्जन व्यक्ति सज्जन पुरुषों की आभा को सहज नष्ट नहीं कर सकते । पुष्पकाल: दुर्जनैः रे रे ! वन्हि शमयसि सता तेजसेयान् विरोधः, शैत्यं वारां हृतमित रुषा ही निदाघेन कोपात् । तेनाप्यम्भः प्रकृतिरथ किं व्यत्ययं तत्र याता, दोषान्न स्यात् क्वचन विरतिर्यद् विना भावशुद्धयं ॥ १२ ॥ जल ! तुम आग को बुझा डालते हो । उस श्रेष्ठ प्रकाश के साथ तुम्हारा इतना विरोध क्यों ? मैं समझ गया, ग्रीष्म ऋतु ने क्रुद्ध होकर तुम्हारी शीतलता का हरण कर डाला, तुम्हें गरम कर दिया । पर उससे तुम्हें क्या ? क्या इससे तुम्हारी प्रकृति बदल गई ? नहीं बदली। अब भी तुम आग के लिए पानी ही हो । भावना की शुद्धि के बिना दोषों से विरति नहीं हो सकती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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