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________________ जयपुरयात्रा ५५ आचार्योऽपि प्रथितमहिमा शिष्यवर्ग वितत्य, दूरं दूरं स्वयमुपसृतः पुर्वरे सारदारे ॥६॥ वृक्ष अपनी शाखाओं को आकाश में पूर्णरूप से फैलाकर अपने मूल को भूमि में मजबूत करने के लिए अपनी जड़ों के सहारे भूमि में घूमता है। उसी प्रकार महिमाशाली आचार्य तुलसी भी सारे भारत में अपने शिष्यों को फैलाकर स्वयं दूर-दूर तक विहरण करते हुए सरदारशहर पधारे। पौरे लोके विकचहृदये स्वागतार्थं समेते, पादे भालं दधति सुमुनेधूसरे मार्गधूल्या। त्यागो भोगं जयति सततं सूक्तिरेषा पुराणा, - सार्थाऽमुष्मिन्नपि कलियुगे केन नेति प्रतीतम् ॥७॥ आचार्यप्रवर के पदार्पण से सरदारशहरवासी लोगों का हृदय प्रफुल्लित हो गया। वे सारे स्वागत करने के लिए एकत्रित हुए। वे मार्ग की धूली से खरडे आचार्यश्री के पैरों पर अपने भाल रखने लगे। 'त्याग भोग को जीत लेता है'यह उक्ति पुरानी है । किन्तु इस कलियुग में भी उसकी सत्यता का किसने अनुभव नहीं किया ? भूतज्ञानं नयनविकलं यद् यदाविष्करोति, तत्तद् यूयं युगलनयना: किं प्रयुध्वं मनुष्याः । अस्त्रं नाणोः किमपि भविता शान्तिरक्षाधिकारि, सत्यं शान्ति मृगयथ तदाणुव्रतान्याश्रयध्वम् ।।८।। मनुष्यो ! नेत्रहीन पदार्थ-विज्ञान जो-जो आविष्कार करता है, उस सबका तुम दो आंख वाले होते हुए भी क्यों प्रयोग कर रहे हो ? अणु-अस्त्र शांति और रक्षा करने वाला नहीं होगा। यदि तुम सत्य और शांति के वास्तविक इच्छुक हो तो अणुव्रतों को अपनाओ। . भव्यालोके विपुलमृदुले तापिते चारुणेन, पुण्ये मार्गे शम इव सतां मानसे सत्सहिष्णौ । कामं गच्छन् सगणमुनिपः प्राप्तवान् रत्नदुर्गः, लक्ष्ये दृष्टि क्षिपति पुरुष दुर्लभा. नार्थसिद्धिः ।।६।। प्रकाशित, सूर्य द्वारा तप्त और अत्यन्त मृदु उस पुण्य मार्ग पर चलते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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