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५४ अतुला तुला
इत्याशंसां मनसि निदधच्चम्पकोऽपि व्यहार्षीत,
किन्वादेशे नयनपथगे तत्कथं भावि सिद्धम् ॥३॥ गुरु के सान्निध्य में रहनेवाला गुरु की दृष्टि की आराधना (पूजा) करता है, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? किन्तु जो दूर रहकर उसकी आराधना करता है, वह आश्चर्य है। इस आशंसा को मन में धारण कर 'चंपकमुनि' (बडभ्राता) वहां से अन्यत्र विहार कर गए। किन्तु उनका यह मनोरथ (दूर रहकर गुरु की दृष्टि की आराधना करूंगा) कैसे सिद्ध होगा; जबकि गुरु का आदेश प्रतिपल उनकी आंखों के सामने है।
क्रूर मार्गे गतिमति युगे यंत्रपादैरुदभिनम्रा वृत्तिम दुलचरणा पृष्ठगा तत्र जाता। सेवासक्ता यमिनि नियतं यायिनि प्रेममार्गे,
वन्दारुत्वे विहरणगतेर्दर्शनं जातमस्याः ॥४॥ तारकोल की सड़क और बीच-बीच में निकले हुए नुकीले पत्थर के टुकड़ेऐसे पथ पर आधुनिक वाहन अपने यांत्रिक चरणों द्वारा चल रहे हैं। किन्तु नम्रवृत्ति के चरण मृदुल होते हैं, इसलिए वह (वृत्ति) पिछड़ गई-उस मार्ग पर नहीं चल सकी। वह निश्चित रूप से प्रेम-मार्ग पर चलने वाले साधुओं की सेवा में लीन हो गई । साधु वर्ग के विहार के समय की जानेवाली वंदना के क्षणों में इसका प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा था।
शीते शान्तिमिलति सुतरां तत्र लोकोऽविवेकी, दास्यं मृत्तां प्रकृतिजडतामूहते सानुभावम् । किञ्चिद् ग्रीष्म समजनि मनो रोदसी प्रापदौष्ण्यम्,
कोपोऽसह्यो भवति महतां यन् मुधारोपजन्यः ॥५॥ शीतलता से सदा शान्ति मिलती है। किन्तु लोग अविवेकी हैं। वे शीतलता पर दास्यभाव, मिट्टी होने और प्रकृति से जड़ होने का आरोप लगाते हैं। जब शीतकाल का मन इस आरोप से तप्त हुआ तो आकाश और भूमि दोनों तप उठे। यह सच है कि महान् व्यक्ति का, व्यर्थ के आरोप से उत्पन्न, क्रोध असह्य होता है।
साङ्गोपाङ्गां नभसि विटपी भूरिशाखां वितन्वन्, भूम्यां मूलं द्रढयितुमलं किं न वा पादचारी।
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