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१४ : जयपुरयात्रा माघे मासे मुनिगणपते राजलाद्देसरेऽभूद्, भव्यो वासो वसति मुदितो मूर्तिमान् यत्र धर्मः । मर्यादाया महसि महति प्राप्तनिर्देशविज्ञाः,
सन्तः सत्यः परिहृतमनोभावभंगा व्यहार्युः ॥१॥ विक्रम संवत् २००५ माघ महीने में आचार्यश्री तुलसी का भव्यवास राजलदेसर में था। उस समय ऐसा लग रहा था, मानो कि वहां धर्म मुदित होकर मूर्तिमान् हो रहा है। महान् मर्यादा महोत्सव में निर्देश प्राप्त कर विज्ञ साधु-साध्वी अपने-अपने मनोभावों को गुरुचरणों में समर्पित कर गुरु के आज्ञानुसार अपनीअपनी दिशाओं में विहार कर गए।
मन्त्री मग्नो गुरुमनुचरन् सर्वदा जीवनद्धिदेहश्चित्तं पवनमिव वा वारिवाहोऽनुकूलम् । नूनं कीदृग् गुरुचरणयोर्दूरतोऽवस्थितिः स्या
होलां मुञ्चन् गतिमिव शिशुः पूर्वमेवान्वभूत्ताम् ॥२॥ जैसे—देह चित्त का और बादल अनुकल पवन का अनुसरण करता है वैसे जीवन-संपदा से सम्पन्न मंत्री मुनि मगनलालजी सदा गुरु के साथ चलते थे। गुरु से दूर अवस्थिति कैसे होती है, उसका पहली बार ही अनुभव किया था। जिस प्रकार बच्चा पालने को छोड़कर पहली बार गति का अनुभव करता है, वैसे ही मंत्री मुनि ने गुरु-चरण से दूर की अवस्थिति का पहला अनुभव किया।
दृष्टिं पश्यन् सविधवसतिः किं स्मयः पूजयेत्तां, चित्रं तस्या रचयति तथाऽभ्यर्चनं दूरवर्ती।
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