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५२ अतुला तुला
आत्मा तत्र प्रणिहित धिया स्याद् बुधेनार्पणीयो, यस्मिन् भावो भवति सुतरां नैव प्रत्यर्पणस्य । भावाभावे भवति मनसोऽपि प्रसादो विषादो,
वृक्षं कुर्वन् क्वचन हसितं नार्पणार्हो वसन्तः ॥७॥ पवित्र बुद्धि वाले विद्वान् को अपनी आत्मा का समर्पण वहीं करना चाहिए जहां कभी प्रत्यर्पण का भाव उत्पन्न ही नहीं होता। प्रत्यर्पण की प्राप्ति में मन की प्रसन्नता और उसके अभाव में मन का विषाद होता है। वसन्त कभी अर्पण योग्य नहीं होता, क्योंकि वह क्वचित् ही वृक्ष को प्रफुल्लित कर पाता है।
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