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अनुभवसप्तकम् ५१
प्रवर तर्क-युवकों ने उसे देखा ही नहीं, उपेक्षा से टाल दिया। इस प्रकार पटु, पटुतर और पटुतम मनुष्य का तर्क के साथ उससे विपरीत व्यवहार होता है पटु मनुष्य का तर्क वृद्ध, पटुतर का युवा और पटुतम का बाल होता है ।
उप्तं येन भ्रमवृतधिया बीजमुच्चैघृणायास्तस्यच्छाया परिणतविषा प्राक् तमेवादुनोति । प्रेम्णो बोजं प्रकृतिपुलकं पार्श्वगेषूप्यमानं,
स्वस्मै दत्तेऽमृतमयफलं तादृगेवाऽपरस्मै ॥४॥ भ्रम से आवृत मतिवाले जिस व्यक्ति ने घृणा के बीज बोएं, उससे उगने वाले वृक्ष की विषैली छाया पहले उसी व्यक्ति को पीड़ित करती है। अपने पास रहने वाले व्यक्तियों में जिसने प्रकृति-पुलक प्रेम का बीज बोया, वह स्वयं को भी अमृत का फल देता है तो दूसरों को भी वैसा ही फल देता है।
यो वा वृद्धानवगणयति प्राप्त कार्यावरोधान्, सोवज्ञातं सृजति निजकं वार्धकं दृष्टपावः । आज्ञावज्ञां सृजति सुगुरोर्योऽनुजानां पुरस्तात् ।
सोऽज्ञानेन स्ववचनमहो मूल्यहीनं करोति ॥५॥ जो व्यक्ति कार्य करने में अक्षम वृद्धजनों की अवगणना करता है, वह एक ही पार्श्व को देखने वाला है । ऐसा कर वह अपने ही वृद्धत्व की अवगणना करता है । जो अपने ही अनुजों के समक्ष गुरुजनों के वाक्यों की अवहेलना करता है, आश्चर्य है कि वह अपने ही अज्ञान से अपने वचनों को मूल्यहीन बनाता है।
संधे तिष्ठन्नपि वसति यश्चैककः सोस्ति तुष्टः, एकस्तिष्ठन्नपि परिवृतः कल्पनाभिः स रुष्टः । व्यापिप्रेम्णा क्वचिदपि वसन्नेककः संघगोपि,
प्रेम्णोऽभावे विजनवसतिश्चापि नैकत्वमेति ॥६॥ जो संघ में रहता हुआ भी अकेला रहता है, वह प्रसन्न रहता है। किन्तु जो अकेला रहता हुआ भी कल्पनाओं से परिवृत रहता है, वह सदा रुष्ट रहता है। व्यापक प्रेम से रहने वाला अकेला व्यक्ति, चाहे कहीं भी रहे, वह समूह में ही है और प्रेम के अभाव में एकान्त में रहनेवाला व्यक्ति भी अकेला नहीं है।
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