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१३ : अनुभवसप्तकम्
अस्मिन् दीर्घ पथि विहरता यत्र लब्धं तमिस्र, तत्रालोकः प्रसृतिमगमन्नाभिचक्रेऽनुदृष्टे । चित्ते स्थैर्य गतवति ममाऽनाहते चक्रदेशे,
सर्वे प्राच्या जटिलगतयो ग्रन्थयो मोक्षमापुः ॥१॥ जीवन के इस लम्बे मार्ग में जहां मुझे अन्धकार दिखा, वहीं नाभिचक्र पर दृष्टि को एकाग्र करने से प्रकाश मिला । अनाहत चक्र पर चित्त को स्थिर करने पर मेरी सारी पुरानी और जटिल ग्रन्थियां खुल गईं।
द्रष्टुं यत्नो न खलु विहितो दर्पणेस्मिन् स्थितीनामेतद् दृश्याकृतिषु बहुषु भ्रान्ति मध्यात्ममेति । आत्मादर्श स्फुरति मनसश्चेष्टितं पुद्गलानां,
कर्तुत्वे हि प्रतिपलमसौ भ्रान्तिरेवानुभूता ।।२।। स्थितियों के दर्पण में मैंने देखने का प्रयत्न नहीं किया। किन्तु इसमें दृश्य बहुत सारी आकृतियों में मैंने देखा तो मन भ्रान्ति से भर गया। मन की चेष्टाएं आत्मा के दर्पण में स्फुरित होती हैं। मैंने जब-जब उनमें पौद्गलिक कर्तव्य का आरोपण किया तब-तब मुझे भ्रान्ति का अनुभव हुआ।
श्रद्धा बालाऽभवदनुगता यैश्च कैश्चापि तकस्तारुण्ये सा नयनपथगा दूरतः शङ्कितानाम् । वृद्धा जाता प्रवरयुवभिर्नेक्षितोपेक्षयेव,
लोकः सर्वैः पटुपटुतरैर्व्यत्ययस्तैरकारि ॥३॥ श्रद्धा जब बालिका थी तब वह जिन किन्हीं तर्कों के पीछे चलती थी। जब वह तरुणी हुई तब आशंकित तर्क उसे दूर से देखने लगे। जब वह वृद्ध हो गई तब
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