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पद्मपञ्चदशकम् ४६
तव जन्मेच्छव इति निगदन्ति,
गगनेऽम्बुजकुसुमं किं न स्यात् ।।१२।। कमल ! तर्कप्रवण लोक तुम्हारे में बहुत अनुरक्त हैं। वे अभाव में भी तुम्हारी उत्पत्ति देखना चाहते हैं। उनका तर्क है -यदि अभाव में कुछ हो तो आकाश में कमल का फूल क्यों नहीं खिलेगा ?
यत्र क्वापि जलाशयमात्रे, वर्णनीयमम्बुजमित्यर्थम् । असन्निबंधः कृत इति किं रे!,
काव्यशिक्षकाणां त्वयि मोहः ॥१३।। जलाशय मात्र में कमल का वर्णन कर देना चाहिए-यह असद् निबंध कविसमय (काव्य की आचार-संहिता) है । काव्य-शास्त्रियों का तेरे प्रति यह कितना मोह है ?
लक्ष्मी किञ्चिदपि प्राप्यैवं, शुष्कदारुवद् दारुणभावाः । ये नमन्ति न हि मनुजास्ताँस्तव,
हसन्ति पुष्पाणि स्मितमिषतः ॥१४॥ जो व्यक्ति थोड़ी-सी लक्ष्मी पाकर भी सूखे ठूठ की तरह अकड़ में रहते हैं और कभी नहीं झुकते, उन पर तुम्हारे फूल स्मित के मिष हंसते हैं।
शिक्षयन्ति भो! भो ! द्रष्टव्यमस्माकं च पितुर्वैशिष्ट्यम् । स्वयं रमाऽस्मिन् वसति तथापि,
मृदुलत्वं न जहाति कदापि ।।१५।। ये फूल हमें सिखा रहे हैं कि हमारे पिता की विशेषता देखो, इसमें लक्ष्मी स्वयं निवास करती है, तो भी यह मृदुता को नहीं छोड़ता।
(वि० सं० १९९६ ज्येष्ठ-राजगढ़)
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