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________________ ४८ अतुला तुला तस्याप्युपमानार्थं भुवने, त्वमेव योग्यं प्राप्तं कविभिः ।।८।। कमल ! जो चरण इन्द्र के मुकुट की सुन्दर मणियों के संघट्टन से लाल हो जाते हैं, उन चरणों को उपमित करने के लिए कवियों ने तुम्हें ही योग्य समझा है। दानं यो वितरत्यथिभ्यः, सम्मानं च कृपाप्राथिभ्यः । तस्मै हस्ताय त्वामेव, विदधत्युपमापदमभिरूपाः ॥६॥ . जो हाथ दानार्थी लोगों को दान देता है और कृपाकांक्षी लोगों को सम्मान प्रदान करता है, वह हाथ विद्वानों द्वारा तुम्हारी ही उपमा से उपमित है। चित्र चित्रं मुखनयनादेः, शरीरसारस्यावयवस्य । उपमानं यत्त्वमेव जातं, किं सुकृतं कृतमिति जिज्ञासुः॥१०॥ कमल ! मुख, नयन आदि शरीर के सारभूत सारे अवयवों के लिए तुम ही उपमान बने हुए हो। मैं यह जानना चाहता हूं कि तुमने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है कि तुम ऐसे उपमान बन पाए हो ? शरणं यातेभ्यः संकोचे, जातेऽपि स्थानं दातव्यम् । इति शिक्षयितुं त्वं सन्मनुजान्, धरसि निशायामलि स्वकोशे ॥११॥ कमल ! तुम मनुष्यों को यह शिक्षा देते हो कि स्थान का संकोच होने पर भी शरणागत को स्थान अवश्य ही देना चाहिए । इसीलिए तुम रात में अपने कोश में भौंरे को स्थान देते हो। नैयायिकविदुरास्त्वयि रक्ताः, सन्ति नितान्तं यदऽभावेपि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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