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________________ पद्मपञ्चदशकम् ४७ मृदुलत्वं च जहासि न तद्वत्, तव वैशिष्ट्यं कियदेतत् स्यात् ।।४।। तुम निरंतर जल (जड़) में निवास करते हो, परन्तु उसकी जड़ता को स्वीकार नहीं करते। तुम अपनी कोमलता को नहीं छोड़ते, यह तुम्हारी कितनी महान् विशेषता है। त्वां विवशीकत यदि जाड्यं, तीव्र रूपं स्वस्य करोति । तदपि ततो दूरं स्थातुं त्वं, प्राणानप्यर्पयसि विचित्रम् ॥५॥ तुमको विवश करने के लिए यदि जड़ता तीव्र रूप कर लेती है तब तुम अपने प्राणों को न्योछावर कर देते हो, पर मृदुता को नहीं खोते, यह कितना आश्चर्य है। अस्तं गच्छति मित्रे सूर्य, । संकोचं तनुसे निजतनुषः। यावन्नोदयमेति पुनः स, तावत् कलयसि नात्मविकासम् ।।६।। कमल ! सूर्य तम्हारा मित्र है। जब वह अस्त हो जाता है तब तम भी अपनेआपको संकुचित कर लेते हो। जब तक सूर्य पुनः उदित नहीं होता तब तक तुम अपने आपको विकसित नहीं करते। माधुर्यं त्वयि कियदस्तीति, कुर्यादऽनुमानं को विद्वान् । तव धूल्यामपि लुठति नितान्तं, कविवल्लभरोलम्बकदम्बः ॥७॥ तुम्हारे में कितनी मधुरता है, यह भला कौन विद्वान् अनुमान कर सकता है ? देखो, कविजनों का प्रिय भ्रमर तुम्हारे पराग में निरंतर लुठता रहता है। यश्चरणस्त्रिदशेशकिरीटमंजुलमणिसंघर्षणरक्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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