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१२ : पद्मपञ्चदशकम्
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परमाणुभिरुत्पन्नस्त्वं तेऽन्यत्रापि ।
मृदुलसरोरुह !
प्राप्यन्ते वा न हि प्राप्यन्त, इत्यवगन्तुं
कमल ! तुम अत्यन्त मृदु हो । जिन परमाणुओं से तुम्हारा निर्माण हुआ है, वे अन्यत प्राप्य हैं या नहीं, यह जानने के लिए मैं अत्यन्त उत्सुक हूं ।
मे प्रबलेच्छा ।। १।।
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किन्त्वनुमाम्यणवस्तवकाय
सदृशा नो नीयन्तेऽन्यत्र । किञ्च गुणास्त्वयि सर्वविशिष्टा, उपलभ्यन्तेऽनुपमा
अन्यैः ॥ २॥
किन्तु मेरा यह अनुमान है कि वैसे परमाणु अन्यत्र प्राप्य नहीं हैं। क्योंकि
तुम्हारे में जो गुण हैं, वे दूसरों से विशिष्ट और अनुपम हैं ।
प ेप्युत्पत्ति
संप्राप्य,
यत्त्वम् ।
कियदास्ते, सोsप्यवगुणभाजि न पक्षः ॥ ३॥
कालुष्यं
तत्तव
नाद्रियसे
वैचित्र्यं
कमल ! तुम कीचड़ में उत्पन्न होकर भी उसकी कलुषता से स्पृष्ट नहीं होते, यह तुम्हारी कितनी बड़ी विचित्रता है । अवगुणवान् यदि अपना भी है तो उसके प्रति तुम्हारा पक्षपात नहीं है ।
निवास,
जडे नितान्तं सृजसि तथापि जाड्यं नाङ्गीकुरुषे ।
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