________________
विश्वासात्मा ४५
तुच्छता तुच्छता में कभी विलीन नहीं होती। वह महानता में ही विलीन हो पाती है। यह विश्रुत विधि है । सचिव की तुच्छता की धारा राजा की मानस-गंगा में लीन हो गई और तब महत्त्व का उदय हुआ।
विश्वासस्य क्षिपति सचिवे कण्ठपीठे कुठारं, विश्वासात्माऽकृत नरपतिस्तस्य हस्तावरोधम् । क्रूरं द्वन्द्वं भवति रभसा मृत्युना जीवनस्य,
कश्चित् कश्चित् क्षण इह भवेत्तादृशः कालचक्रे ॥४॥ विश्वास की पीठ में छुरा भोंकने वाले सचिव का हाथ विश्वासात्मा राजा ने थाम लिया। इस कालचक्र में कभी-कभी ऐसा क्षण आता है जब जीवन का मृत्यु के साथ क्रूर द्वन्द्व होने लगता है।
(रानी राजा के आदेश से सचिव के प्रासाद में उपस्थित हुई। सचिव का मन ग्लानि से भर गया। उसने कुठार से आत्महत्या का प्रयास किया। गुप्त-द्वार से झांकते हुए राजा ने सोचा-यह कुठार सचिव की नहीं किन्तु विश्वास की हत्या करेगा। राजा ने सचिव का हाथ पकड़ लिया।)
(वि० सं० २०२० आश्विन, लाडनूं)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org