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११ : विश्वासात्मा
देहासक्तिर्वत ! बलवती क्षीणमङ्गं चकार, रुष्टो राजा सचिवमनुयन् गुप्तचेतःप्रकाशम् । वाच्ये लज्जा भवति च भयं गोपने राजरोषः,
कार्याकार्ये तमिह परितो निन्यतुर्दिग्विमोहम् ॥१॥ (मन्त्री रानी के प्रति आसक्त हो गया) रानी के प्रति बढ़ी हुई आसक्ति से सचिव का शरीर क्षीण होने लगा। राजा ने उसके मन की बात जाननी चाही। किन्तु सचिव ने रहस्य का उद्घाटन नहीं किया। राजा कुपित हो गया । सचिव को अपना रहस्य बताने में लज्जा और उसका गोपन करने में राजरोष का भय था। कार्य और अकार्य के द्वन्द्व ने उसे चारों ओर से दिग्मूढ बना दिया।
सन्देहानां सरसि सहसा भिद्यमानेन्तरात्मा, दृश्यः स्पृश्यो भवति सचिवश्चापि राज्ञस्तथाभूत्। विश्वासोऽपि श्वसिति सुतरां प्राप्य विश्वासमुच्चैः,
श्वासः श्वासं विसृजति न वा श्वासरोधो हि हन्ति ॥२॥ सन्देहों का तालाब टूटने पर अन्तरात्मा. दीखने लगती है और उसका स्पर्श होने लगता है । सचिव ने अपना हृदय खोला और राजा ने सब कुछ जान लिया। दृढ़ विश्वास को पाकर ही विश्वास श्वास लेता है । श्वास ही श्वास को छोड़ता है। श्वास का निरोध प्राणों को ले लेता है।
तुच्छत्वं नो किल विलयते तुच्छतायां कदाचित्, तन् माहात्म्ये व्रजति विलयं रीतिरेषा प्रसिद्धा। राज्ञश्चेतः सुरसरिति सा मन्त्रिणस्तुच्छताया, धारा लीनाऽभवदुदयनं प्राप तस्मिन् महत्वम् ॥३॥ .
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