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नायं चिन्त्यः शुक्तिगो वारिबिन्दुः, कालं लब्ध्वा मौक्तिकं भावि रम्यम् 1. विन्दमाने सदाभा, छिन्नमूलोऽवगम्यः
दृष्ट्या लक्ष्ये नाशाशाखी
॥२५॥
सीप में गिरा हुआ पानी का बिन्दु समय के परिपाक से सुन्दर मोती बन जाता है, यह कोई अनहोनी बात नहीं है । आभा का अस्तित्व दृष्टि से लक्षित भले न हो, किन्तु उसमें आशा का वृक्ष छिन्नमूल नहीं होता । वह कभी न कभी फल जाता है।
निकंबरेखा ४१
विचारशक्तिर्न च वाचि जाता, विचारणा नापि च जल्पना । न प्रातिनिध्यं किल चेतनस्य, जडो विदध्यान् नियमः कृतोऽयम् ॥ २६ ॥
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वाणी में विचारशक्ति नहीं होती और विचार बोलने में समर्थ नहीं होता । यह अटल नियम है कि जड़ चेतन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता ।
स्वतंत्रतायां
न
सह्यो
मन्ये
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करप्रसारः,
वपुषेत्यघोषि । मननेऽभिधाने,
परस्य
तेनैव
तथा
क्रियायां न हि
साम्यमस्ति ||२७||
अपनी स्वतन्त्रता में दूसरों का हस्तक्षेप सह्य नहीं होता – शरीर ने यह घोषणा की। इसीलिए मैं मानता हूं कि मन, वाणी और क्रिया में कोई साम्य नहीं है ।
चेतोग्राह्यं कथमपि न वागोशतामेति वक्तुं, वाचां वाच्ये भवति मनसः सर्वथा स्वीकृतिर्न । नान्यः कश्चित् प्रतिनिधिरपि प्रांशुभावोऽनयोश्च, गम्यं भावं व्रजसि सुधिया तत्सखे ! याहि रम्यम् ||२८||
चित्त के द्वारा ग्राह्य विषय को कहने में वाणी असमर्थ है और जो वाणी के द्वारा वाच्य है वह सब मन के द्वारा स्वीकृत नहीं होता । इन दोनों का कोई उच्चचेता प्रतिनिधि भी नहीं है । हे सखे ! तू बुद्धि के द्वारा जिस गम्य-भाव को
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