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४२ अतुला तुला
प्राप्त होता है, उस ओर जा । यही तेरे लिए अच्छा है ।
जानामि सोऽयं पुरुषो मनीषी, मन्ये न वात्माभ्यधिकं तथापि । हेतुस्तदभिज्ञता
च,
पूर्वस्य परस्य हेतुश्च
माभिमानः ||२६||
मैं जानता हूं कि वह व्यक्ति मनीषी है, फिर भी मैं उसे अपने आपसे अधिक नहीं समझता । उसको मनीषी मानने का हेतु है उसकी विद्वत्ता और उसे मुझसे अधिक मनीषी न मानने का हेतु है मेरा अपना अभिमान ।
त्वामन्वेषयितुं गतो बहिरहं त्वं नागमो दृश्यतामन्तःस्थोऽभवमाशु मामुपगतः प्राप्तश्चिरं विस्मयम् । स्थूलोऽहं त्वमभूर्लघु लंघुरहं त्वं स्थूलतामाश्रितो, देवेत्थं शिशुना शिशुत्वमुपयन् स्वस्थाविरं नावसि ||३०||
देव ! मैं तुम्हें ढूंढने के लिए बाहर गया, किन्तु तुम वहां नहीं मिले। मैं अन्दर आया और तुम मुझे शीघ्र ही प्राप्त हो गए। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ । मैं स्थूल हुआ तो तुम सूक्ष्म हो गए और जब मैं सूक्ष्म हुआ तो तुम स्थूल हो गए । देव ! तुम बच्चे के साथ इस प्रकार बचपन करते हए अपने स्थविरत्व की रक्षा कर सकोगे ?
गुरुत्वमन्तःकरणे
प्रविष्ट,
लघुत्वमापादयते जनानाम् । लघुत्वमन्तःकरणे प्रविष्ट, गुरुत्वमापादयते
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जनेषु ॥३१॥
प्राणियों के अन्तःकरण में गुरुत्व ( बड़प्पन) आते ही वह उन्हें लघु बना देता है और अन्तःकरण में लघुत्व आते ही वह उन्हें गुरु बना देता है ।
प्राप्तोनो परमेश्वरः कथमिदं लब्धो न मार्गो मया, लब्धः किन्न गुरुर्न लब्ध उचितं मार्गं दिशेद् यः शुभम् । लब्धः किन्न मयैषणा नहि कृता कि नो कृता भावना, नोत्पन्ना न कथं न चोत्तमजनैः संपर्कमायातवान् ||३२||
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