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४० अतुला तुला
जो प्रशंसा का लोभी है वह निन्दा के योग्य है । श्लाघा उसके पास जाना नहीं चाहती। और जो प्रशंसा का लोभी नहीं है, वह श्लाघा के योग्य है। पर वह श्लाघा को नहीं चाहता। आश्चर्य है, सतियों (यहां श्लाघा सती के रूप में कल्पित है) की गति कितनी कष्टप्रद होती है !
सज्जन मनुष्य दुर्जन के द्वारा कामित स्वविषयक निन्दा को खुशी से जानना चाहता है, क्योंकि दुष्ट व्यक्तियों का जीवन महान् पुरुषों के एकांगी पक्ष पर ही स्थिर रहता है।
गौरवं तु गुरोर्भावो, लाघवं च निजात्मनः । परवस्तुनि कः कुर्याद्,
ममत्वं मतिमान् पुमान् ।।२२।। गौरव गुरु का भाव है । लघुता अपनी निजी वस्तु है । कौन मतिमान् मनुष्य पर-वस्तु में ममत्व करेगा?
अस्तंगते सवितरि प्रतिभाति चन्द्रश्चन्द्रेऽस्तमाव्रजति भाति सहस्रभानुः । चित्रं किमत्र जगतः खलु रोतिरेषा,
कश्चिन्नयत्युदयमस्तमिति कश्चित् ॥२३॥ सूर्य के अस्त होने पर चन्द्र मा उदित होता है और चन्द्रमा के अस्त होने पर सूर्य उदित होता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि संसार की यह रीति है कि कोई उदित होता है और कोई अस्त ।
वीरोस्म्यहं विश्वजयीति बन्धो !, मुधाभिमानं कुरु मा स्वचित्ते। जेतुं न शक्यः कुसुमायुधोपि,
त्वया त्वनङ्गोपि धनेषुणापि ॥२४॥ हे बंधो ! तुम अपने चित्त में यह व्यर्थ अभिमान मत करो कि मैं वीर हूं, विश्वविजेता हूं। देखो, तुम अपने बाणों से उस अनंग (बिना शरीर वाले) तथा फूलों का आयुध रखने वाले कामदेव को भी नहीं जीत सके हो।
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