________________
३८ अतुला तुला
महतां कष्टम्
लम्बन्ते तारकास्ते विशदरचितयः शून्यतायामिदानी, भ्राम्यन्त्यद्यापि नित्यं विकलवसतयो भास्करख्यातिधुर्याः । ते के सन्तो जगत्यां परहितनिरता ये न जीवन्ति कष्टं, सौख्यं दुष्टान् वृणोति प्रकृति कलुषितान् यत्तमः शांतिसर्गम् ।।१५।। ये प्रकाशशील तारे शून्य आकाश में लटक रहे हैं। अन्यान्य प्रकाशशील ग्रह भी आज तक इधर-उधर घूमते रहे हैं । जगत् में ऐसे कौन व्यक्ति हैं जो परोपकार करते हुए कष्ट का जीवन नहीं जीते ? सुख प्रकृति से कलुषित दुष्ट ब्यक्तियों का वरण करता है। अन्धकार शांति का सृजन करता है।
जाड्यम्
द्वारि द्वारि प्राप्त आलोक एष, स्नायं स्नायं सूर्य रश्मिप्रताने । कुड्ये किञ्चिन्नावकाशं लभेत,
प्रायो जाड्यं ह्यन्धकारानुयायि ॥१६॥ सूर्य के रश्मि-समूह में नहाकर द्वार-द्वार पर यह आलोक आया है। यह भीतों में प्रवेश नहीं पा रहा है; क्योंकि जड़ (अवरोध पैदा करने वाले) प्रायः अन्धकार का अनुगमन करते हैं। कियान प्रभेदः ?
अनन्तलीला प्रथमे क्षणे तु, छदों गृहाणां स्थितिरुत्तरस्मिन् । दिने च रात्री च कियान् प्रभेद,
इदं कपोता हि विदन्ति नान्ये ॥१७॥ कबूतर दिन में तो अनन्त आकाश में उड़ते हैं और रात में घर के छज्जों पर आ बैठते हैं। दिन और रात में कितना अन्तर होता है-यह वे ही जान सकते हैं, दूसरे नहीं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org