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निकषरेखा ३७
प्रयोजन के ही उस पानी को अपने में समा लिया। यह सच है-आखिर अपना अपना होता है और पराया पराया।
माधुर्यम् जीवनहरणं
स्तनितं, वर्षणमात्मनीत्यादि घनकार्यम् । सर्व सहते सिन्धु
मधुरीकरणगुणमैक्ष्यकम् ॥१३॥ मेघ का कार्य है-समुद्र से पानी चुराना, गर्जना और वर्षा करना। समुद्र यह सब इसलिए सहता है कि मेघ में खारे पानी को मीठा बनाने का एक महान् गुण है। कवि-दार्शनिकसंगमः
आनन्दस्तव रोदनेऽपि सुकवे ! मे नास्ति तद्व्याकृती, दृष्टिार्शनिकस्य संप्रवदतो जाता समस्यामयी। किं सत्यं त्वितिचिन्तया हृतमतेः क्वानन्दवार्ता तव, तत् सत्यं मम यत्र नन्दति मनो नैका हि भूरावयोः ॥१४।।
एक दार्शनिक ने कवि से कहा-'कविशेखर ! तुम्हारे रोने में भी आनन्द है और आनन्द की व्यवस्था करने में भी मुझे आनंद नहीं आता। मैं जैसे-जैसे आनंद को समझने और उसकी व्याख्या करने का प्रयास करता हूं, वैसे ही मेरी दृष्टि समस्याओं से भर जाती है।'
कवि ने कहा-'दार्शनिक ! तुम इस बात में उलझ जाते हो कि सत्य क्या है ? तुम्हारी बुद्धि उसी में लग जाती है । तुम्हारे लिए आनन्द की बात ही कहां? किन्तु मेरा अपना सूत्र यह है कि जिसमें मन आनन्दित हो जाए, वही सत्य है। इससे मेरे लिए सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। दार्शनिक ! तुम्हारी और मेरी भूमिका एक नहीं है।'
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