________________
निकषरेखा ३५
सूर्य !तुम सब दूसरे ग्रहों को आच्छादित कर देते हो। यह दीप का अनुकरण है या तुम्हारा स्वभाव ? मैं मानता हूं कि तुम्हारा कोई मित्र नहीं है जो कि तुम्हें हितकारी कार्य में योजित कर सके। तुम्हारी इस नीच क्रिया से जाति-द्वेष की परम्परा विकसित हुई है। इसी बात से ये अंधकार में दीखने वाले तारे तुम्हारे तेज की हंसी उड़ा रहे हैं।
तटस्थ
आलोकं स्वस्य पूषा प्रथयति पृथुलं वासरे भास्वरात्मा, रात्री गाढान्धकारं प्रसृमरकरणं गाहते भूमिमेताम् । नालोको नान्धकारो भवति च समयः सन्धिवेलैव तादृग, दोषैर्मुक्ता यदि स्युर्न खलु गुणगणैश्चापि के ते तटस्थाः ॥७॥
सूर्य प्रकाशी है । वह दिन में विपुल प्रकाश को फैलाता है। रात्रि में सघन और व्यापक तमोमय शरीरवाला अन्धकार सारी पृथ्वी पर फैल जाता है । संध्याकाल ही एक ऐसा समय है, जिसमें न अंधकार होता है और न प्रकाश। ऐसे कौन तटस्थ व्यक्ति हैं जो दोष-मुक्त हों और साथ-साथ गुण से भी शून्य न हों ?
लक्ष्मी
स्वकीयाः परकीयाः स्युः, परकीया अपि स्वकाः । विरहेविरहे पद्म!,
तव केयं विचित्रता ॥८॥ लक्ष्मी ! तुम्हारे अभाव में 'अपने' 'पराए' हो जाते हैं, और तुम्हारे भाव में 'पराए' भी 'अपने' हो जाते हैं । यह तुम्हारी कैसी विचित्रता !
पद्मे ! कृथा मेति वृथाभिमान, मत्स्पर्शतो ही मनुजा मदान्धाः । यत्राऽविवेकस्य भवेन्नसङ्गो,
न तत्र शक्तिः सफला तवैका ॥६॥ लक्ष्मी ! तुम यह झूठा अभिमान मत करो कि तुम्हारे स्पर्श से मनुष्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org