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________________ ३४ अतुला तुला रहा है । पवित्र ज्योति जल रही है। यह आश्चर्य है कि फिर भी दीपक अंधकार को नष्ट नहीं कर रहा है। सूर्य सातङ्क कुरुषेऽथ भूगृहमहो रे कोऽसि ? भास्वानहं, छिद्रान्वेषक ! किं तवास्त्यविषयः पृष्ठं न मे मुञ्चसि । दोषं पश्यसि नात्मनः कथमरे ! पश्यन्न वा पश्यसि, विघ्नस्त्वं मम साम्यकर्मणि हहा ! धिक् पापिनां चेष्टितम् ॥४॥ सूर्य ने अंधकार से कहा-'अरे ! तुम इस भोहरे को आतंकित करते हो ?' अंधकार ने पूछा-'तुम कौन हो?' सूर्य ने कहा-'मैं सूर्य हूं।' अन्धकार बोला -'छिद्रान्वेषक ! ऐसा कोई विषय है, जिसे तुम नहीं छूते ? तुम मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ते ?' सूर्य ने कहा-'अरे ! तुम अपना दोष नहीं देखते या देखते हुए भी नहीं देखते ।' अन्धकार ने कहा-'मेरे अस्तित्व में समता का साम्राज्य रहता है-कोई ऊंचा-नीचा, काला-गोरा नहीं दीखता । सूर्य ! तुम मेरे इस समता-कार्य के विघ्न हो।' धिक्कार है दुष्ट व्यक्तियों की चेष्टाओं को ! ग्रीष्मे भानोररुणकिरणैः शुष्यमाणे हि पंके, सम्यग्बुद्धं विकलनिनदर्भास्वतां कर्मकाण्डम् । क्षुद्रोद्धारे श्रयति सलिलं स्वात्मना गर्तवासं, तेनैवाद्य प्रकृतिमुखरैर्द१रेर्गीयमानम् ॥५॥ ग्रीष्म ऋतु में सूर्य तेज किरणों से तप रहा था। उसके ताप से कीचड़ सूखने लगा। तब उस कीचड़ में बसने वाले मेंढकों ने व्याकुल शब्दों में कहा-'हमने प्रकाशवान् व्यक्तियों के कर्मकाण्ड को देख लिया है। वे दूसरों को कष्ट देने में रस लेते हैं।' इतने में उन क्षुद्र जीवों का उद्धार करने की कामना से पानी ने अपने आपको नीचे गढ़े में गिराया और तब मेंढक हर्षित हो उठे। इसीलिए आज भी वर्षाऋतु में प्रकृति से वाचाल मेंढक पानी का यशोगान गाते रहते हैं । सूर्याच्छादयसि ग्रहाननुकृतिर्दीपस्य वा प्राकृतं, मन्ये कश्चन नास्ति ते प्रियसुहृद् यस्त्वां हिते योजयेत्। जातिद्वेषपरम्परा विकसिता नीचेन तत्कर्मणा, हस्यन्ते तिमिरेऽपि . दृश्यतनुभिस्तेजांसि ते तारकैः ।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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