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१० : निकषरेखा
दीप
दीप! प्रकाशयसि रे परवस्तुजातं, द्रष्टुं स्वरूपमपि यद् मुकुरे यतस्व । स्नेहापशोषणतया त्वयि भास्वरेऽपि,
यः कालिमा न हि कलङ्कपदं किमत्र ॥१|| दीप! तुम दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करते हो। तुम अपना स्वरूप कांच में देखने का यत्न करो। तुम स्वयं चमकीले हो, किन्तु स्नेह (तेल) का शोषण करने के कारण तुम्हारे में कालिमा आ गई है । क्या यह तुम्हारे लिए कलंक नहीं है ?
आलोकवानसि वरं गृहरत्न ! किन्तु, कीत्ति न गातुमभिमानिवरोऽहमिच्छुः । कान्ताकरागुंलिविकम्पनमध्यवासि,
त्वज्जीवनं च मरणं किमिदं तवाहम् ॥२॥ हे प्रदीप ! तुम प्रकाशवान् हो, किन्तु स्वाभिमानी मैं तुम्हारी कीर्ति का गान नहीं करना चाहता। क्योंकि तुम्हारा जीवन और मरण स्त्री की अंगुलि के कंपन पर टिका हुआ है । क्या यह तुम्हारे योग्य है ?
तैलं पूर्ण वत्तिरुच्चैः कृतास्या, सूक्ष्मो वातः पावकः पावनात्मा। चित्रं चित्रं नो तथापि प्रदीपो,
वृत्रस्तोमं भूमिसाद् यत्तनोति ॥३॥ दीपक में तैल भी है और ऊंचा मुंह किए खड़ी बाती भी है । मन्द पवन चल
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