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६ : पितृप्रेम नीरं मत्तो नीतं. नाश्रयोऽपि वर्तने तव क्वापि । आकृत्याऽपि श्यामो,
गर्जसि कस्मान् मुधा मेघ ! ।।१॥ समुद्र ने कहा-'मेघ ! तुमने पानी मेरे से लिया है। तुम्हारा कहीं भी आश्रय नहीं है । तुम आकृति से भी काले हो, फिर भी तुम व्यर्थ ही क्यों गरजते हो?
क्षारं मधुरं कृत्वा, तव वारि तेनैव संतोष्य जनान् । पुनरपि ते वितरामि,
तस्माद् गर्जाम्यहं न मुधा ॥२॥ मेघ ने कहा- 'समुद्र ! तुम्हारे खारे पानी को मीठा बनाकर लोगों को देता हं और उससे वे संतुष्ट होते हैं । वही पानी तुम्हें (नदी-नाले के माध्यम से) पुनः वितरित कर देता हूं। इसीलिए मैं गर्जन करता हूं। मैं व्यर्थ ही नहीं गर्जता।
पुत्रस्तव सकलंकस्तनुजा चपला च तत्पतिः कृष्णः । क्षारमयः सकलोऽसि,
गर्जसि कस्मान् मुधा सिन्धो ! ॥३॥ मेघ ने कहा-'समुद्र ! तुम्हारा पुत्र चन्द्रमा सकलंक है, पुत्री (लक्ष्मी) चपल है और उसका पति कृष्ण है-काला है। तुम सर्वात्मना क्षारमय हो। इतना होने पर भी तुम व्यर्थ ही क्यों गर्जन करते हो ?
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