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८ : दुर्जनचेष्टितम्
कोपारुणमिव
रक्तं भूत्वा त्वामीक्षतेऽह यत्पद्मम् । तदपि . हि तेन प्रीति
कुरुषे भानो !ऽत्र वैचित्र्यम् ॥१॥ हे सूर्य ! यह कमल तुम्हें क्रोधारुण होकर देख रहा है, फिर भी तुम उससे प्रेम करते हो, यह वैचित्य है।
अम्बुज ! किं पश्यसि नो, दुराचरितं त्वममुष्य गगनमणः । त्वया सृजन्नपि मैत्रों,
व्वदुत्पत्तिहेतु शोषयति ।।२।। कमल ! तुम क्या इस सूर्य के दुराचरण को नहीं देखते ? वह एक ओर तुम्हारे साथ मैत्री करता है और दूसरी ओर तुम्हारी उत्पत्ति के मूल कारणकीचड़ को सुखाता है।
मा विश्वसिहि मधुकृन् ! मदर्थमिन्दीवरं प्रफुल्ल मिति । एतत्सवितुर्दर्शन
लालसमेवं - स्फुटीभवति ॥३॥ भ्रमर ! तुम कभी यह विश्वास मत करना कि यह कमल मेरे लिए खिला है। सच तो यह है कि यह कमल सूर्य के दर्शन करने की लालसा से खिला है, तुम्हारे लिए नहीं।
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