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६ : मेघाष्टकम्
लीलालोला: पयोदाश्चपलगतिकला व्योम्नि नीले नटन्तो, विद्युल्लेखाविहीना हृतजलधिजलाः प्रायशो गजिशून्याः। आरूढा गन्धवाहं वृतभगणरुचो ज्योतिषां दस्यवो हि, स्तन्ये दाने च तुल्यो विधिरिति तिमिरं मौनिता गोप्यता च ॥१॥ बम्बई के चपल गति करने में निपुण चंचल मेघ नील-नभ में नाच रहे हैं। उन्होंने पास वाले समुद्र से पानी चुराया है। इसलिए वे हाथ में विद्युत् का दीप लिये बिना ही अंधकार में चुपचाप चले जा रहे हैं। वे ज्योति के शत्रु बादल पवन पर आरूढ होकर ज्योतिष्चक्र को आवृत कर रहे हैं। क्योंकि चोरी और दान की विधि एक-जैसी होती है। दोनों में अप्रकाश, मौन और गुप्तता-ये तीनों होते हैं।
संतप्ता भूविभागा हुतवहसदृशा यत्र धूलीप्रदेशे, बिन्दून् बिन्दून प्रतीक्षां विदधति सतृषं दह्यमाना झलाभिः । तत्राम्भोदावलोको न भवति सुलभो यत्र सिन्धोर्लहर्यस्तत्रते भूरि दृश्या ऋतमिति सकलाः पूर्णमापूरयन्ति ॥२॥ जिस मरुधर प्रदेश में सूर्य के आतप से भूमि अग्नि की तरह तप उठती है और वहां के लोग ताप से झुलसते हुए बूंद-बूंद के लिए सतृष्ण नेत्रों से प्रतीक्षा करते हैं, वहां मेघ का दर्शन भी सुलभ नहीं होता। किन्तु जहां समुद्र की लहरें उछलती रहती हैं, वहां बादलों का समूह आकाश में मंडराता रहता है। यह सत्य है कि सभी व्यक्ति भरे हुए को ही भरते हैं।
दृष्ट स्पष्टं मरौ ते प्रतनुकपयसा टोपमारोपयन्तो, वर्षन्ति स्वल्पमम्बु स्तनितविलसितैर्भापयन्तः किशोरान् ।
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