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________________ २४ अतुला तुला रौद्रं रूपं सृजन्तः कथमपि कुटिलं मोहमय्यां न दृष्टाः, सारे नाडम्बरो यद् बहिरुपकरणं रच्यते स्वल्पसारैः ॥३॥ मैंने मरुभूमि में यह स्पष्ट देखा है कि थोड़े पानी वाले बादल बहुत आडम्बर करते हुए आकाश में उमड़ते हैं, गर्जन करते हुए बालकों को डराते हैं, किन्तु बहुत कम पानी बरसाते हैं। यहां बम्बई में मैंने उन्हें किसी प्रकार का कुटिल रौद्र रूप धारण करते हुए नहीं देखा। इससे यह तथ्य स्पष्ट होता है कि जो सारयुक्त होता है उसमें कोई आडंबर नहीं होता और जो स्वल्प सारवाला होता है वही बाहरी उपकरणों की रचना करता है, आडम्बर दिखाता है। सिन्धोरादाय नीरं विदधति मधुरं क्षारभावं व्युदास्य, सिञ्चन्तीलामशेषां सुबहुलसलिलाः आपगाः संसृजन्ति । अज्ञानारम्भ एष प्रकृतिविरचितस्तेन केचिद् रुदन्ति, वर्षाभावे तदन्ये जलबहुलतया पापमज्ञानमुच्चैः॥४॥ बादल समुद्र से पानी लेकर, उसके खारेपन को मिटाकर मीठा बना देते हैं। वे सारी पृथ्वी को पानी से सींचते हैं और प्रचुर पानी वाली नदियां प्रवाहित हो उठती हैं । वे अनेक गांवों को बहा ले जाती हैं। प्रकृति द्वारा विरचित यह अज्ञान का ही फल है। इससे कई लोग वर्षा के अभाव में तो कई लोग वर्षा की अति से रोते हैं। यह सत्य है--अज्ञान बहुत बड़ा पाप है। ग्रीष्मो नीतो निधनमभितो येन तद्राज्यलक्ष्मीख़स्ता चक्रे रसमव निगं शोषयित्वा प्रकामम् । हा ! किं जातं सहजसुलभं पापिनोन्तेन पाप मन्तं नेतुं स्फुरति धिषणा शाश्वतो मार्क्सवादः ॥५॥ बादलों ने उस ग्रीष्म ऋतु को नष्ट कर डाला जिसने पृथ्वी के रस का प्रचुर शोषण कर वर्षा की राज्यलक्ष्मी को ध्वस्त किया था। हा ! यह क्या सहज सुलभ हो गया है कि मनुष्य की बुद्धि पाप का अन्त करने के लिए पापी का अन्त करने की दिशा में स्फूर्त होती है । क्या मार्क्सवाद शाश्वत नहीं है ? क्षणेऽध्वानः शुष्काः स्फुटमपि नभो धूपललितं, क्षणे मेघाच्छन्नं तदह खलु ते नीरभरिताः! अये मेघा ! नैतद् विदितमपि सर्वोर्ध्वमटतां, न विश्वासश्चाप्यो भवति महतां चञ्चलधियाम् ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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