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विनयपत्तम् २१
गन्तव्ये स्मो वयमिह गतास्तत्र यास्यन्ति पूज्याः, गन्तव्योऽयं विधिरतितरां नास्ति गन्तव्यमन्यत् ॥७॥
कार्य में कुछ प्रगति हुई है, इसका हमें संतोष है । अभी जो कुछ कार्य शेष है, उसको पूर्ण करने में हम उत्सुक हैं। जहां हमें पहुंचना था, वहां हम पहुंच गए हैं और पूज्यश्री भी वहीं आएंगे। यह विधि ही सर्वथा गन्तव्य है । इसके अतिरिक्त को गन्तव्य नहीं है ।
कष्टापातः
प्रथममभवत्पञ्चकर्मप्रथायां,
स्नेहप्राप्तिः क्व खलु सुलभा स्वेदनं क्वास्ति लभ्यम् । यत्प्राप्तानां भवति वमनं _कष्टमामाशयाय, शुद्धः पक्वाशय इह विना स्यान्नवा रेचनेन ||८||
आयुर्वेद चिकित्सा के अनुसार मैंने पञ्चकर्म करवाए। उस प्रणाली में पहलेपहल बहुत कष्ट हुआ । स्नेह प्राणियों के लिए कहां सुलभ है ? स्वेदन भी कहां प्राप्त होता है । इन दोनों के होने पर वमन होता है । वह आमाशय के लिए कष्टदायी होता है । रेचन के बिना पक्वाशय शुद्ध नहीं होता ।
उत्तीर्णोऽयं जलधिरधुना तीरमस्मि श्रितोऽहं, कल्पारम्भो भवति नवमीवासरे पुण्ययोगे ।
सेवाभावो मुनिगणगतः साध्वीयोगात्सु विधिरभवत्तन्निदानं
कल्पनादुर्लभोसी, सुट्टक्ते ॥ ॥
मैं इस पञ्चकर्म के समुद्र को पार कर किनारे पर आ पहुंचा हूं । इस पुण्य नवमी के दिन कल्प का प्रारंभ हो रहा है । सहयोगी मुनियों ने जो सेवा की है उसकी कल्पना भी दुर्लभ है । साध्वियों का भी उचित सहयोग रहा। यह सब आपकी दृष्टि का ही परिणाम है ।
आचार्यश्री प्रवरतुलसीपुण्यसान्निध्यमाप्ताः, चम्पालाल प्रभृतिमुनयो वन्दनीया यथार्हम् । अत्रत्यानां मनसि लषितं ते विदन्तु प्रयोग्यं, अत्रत्यानां मनसि लषितं नेयमस्माभिरिष्टम् ॥१०॥
आचार्य प्रवर श्री तुलसी के निकट रहने वाले मुनि चंपालालजी (सेवाभावी ) आदि मुनिवृन्द को यथायोग्य वन्दना, सुखपृच्छा | यहां पर स्थित मुनियों के मन में
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