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५ : विनयपत्रम्
महते यात्रिणे यात, भावाः ! शब्दाश्च संप्रति । सवैद्याय शिवाढ्याय,
तुलसीप्रवराय मे ॥१॥ हे मेरे भावो ! शब्दो ! तुम अभी महान् यात्री, सवैद्य और कल्याण की संपदा से सम्पन्न श्रीमद् आचार्य तुलसी के पास जाओ।
यस्योच्चस्त्वं शिखरिशिखरं लवयित्वाऽभियाति, यस्य प्रेम स्पृशति हृदयं नावृतं मानवानाम् । यस्याश्वापो दिशति सुदिशं त्राणचिन्तारतानां,
चेतो ! याहि प्रकृतपुरुषं तं प्रणन्तुं महान्तम् ।।२॥ मन ! तु उन महान् प्रकृत पुरुष श्री तुलसी को प्रणाम करने के लिए जा जिनकी उच्चता पर्वतों के शिखरों को लांघकर अभियान कर रही है, जिनका अनावृत प्रेम मनुष्यों के हृदय का स्पर्श करता है और जिनका आश्वासन रक्षा की चिन्ता में आतुर प्राणियों को सही दिशा देता है।
दृष्टिप्रेक्षा भवति निकटं दूरतो नापि वार्ता, कायस्पर्शः सविधविषयो दूरता दूरतैव। अग्रे पृष्ठे भवति करणं दूरदेशे हि चेतो, .
यत्सान्निध्यं जनयति निजैख़तमज्ञातमन्यैः ॥३॥ जो निकट होता है उसे दृष्टि से देखा जा सकता है । जो दूर होता है उससे बात भी नहीं की जा सकती। निकटता होने से कायो का स्पर्श भी हो सकता है। दूरी दूरी ही है। दूर देश में आगे-पीछे केवल एक चित्त ही साधन होता है जो
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