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१८ अतुला तुला
हन्त ! मृगतृष्णया मोहितं जगदिदं, नापवादस्ततो
भारतोऽपि । कोऽपि नाध्यात्मिका गुरुरभूदीदशः, किं न तत्त्वं विलोकेत सोऽपि ॥६॥
संग्रहः स्वल्पको वर्धतां संयमः, प्रोच्चजीवनमनेनैव
भूयात्। तत्स्वतन्त्रा स्थिति विनी वस्तुतो, भद्रमध्यात्मवादस्य
भूयात् ॥७॥ भारत में दूसरों का शासन लुप्त हुआ और भारतीय जनता का अभिप्रेत स्वशासन प्राप्त हुआ। किन्तु विस्मृत, तात्त्विक और संजीवनी तुल्य भारतीय संस्कृति को पुनः प्राप्त करने के लिए किसने अपने मन को उत्साहित किया ? __ अपने पर अनुशासन और आत्मविजय करना कोई नहीं चाहता। इन्द्रियां भी संयत नहीं हैं। सब मनुष्य लालसा के वशीभूत हैं और सबकी दृष्टि स्वार्थपरक है । वे ऋषि-वाणी पर ध्यान नहीं देते। ___ मनुष्यों की वाणी में अपने पूर्वजों की महान् गौरव-गाथा है किन्तु कार्यकाल में उस पर किंचित् भी आस्था नहीं है। आज की सारी स्थिति जटिल है। संकल्प-जाल में शांति मान ली गई है।
नेतत्व की रंगभमि सबको अपनी ओर आकृष्ट कर रही है। झूठा महत्व व्यक्ति के कण-कण में व्याप्त है। जीवन भोग की सैकड़ों लिप्साओं से भरा हुआ है। ऐसी स्थिति में कौन त्याग को याद करे ?
विश्वास का मार्ग शुष्क तर्कों से ताड़ित और तजित होकर लुप्तशील वाला हो गया है। आचारयुक्त रीति कहीं भी प्रशंसित नहीं है। श्रेष्ठ नीति घुण जैसे लोगों द्वारा व्याहत हो रही है।
खेद है कि यह समूचा जगत् मृगतृष्णा से मोहित हो रहा है। भारतवर्ष भी इसका अपवाद नहीं है । 'भारत जैसा आध्यात्मिक गुरु कोई दूसरा देश नहीं था'इस तत्त्व को मनुष्य क्यों नहीं देखता?
संग्रह कम हो और संयम बढ़े-इससे ही जीवन उन्नत हो सकता है। तब ही वस्तुतः स्वतन्त्रता की स्थिति होगी और अध्यात्मवाद फलेगा-फूलेगा।
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