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१६ अतुला तुला
अमृतत्वं नेष्यति नूनं । पन्थानमञ्च सभाजय ॥३॥
हे कुसुम ! तू वृक्ष की आराधना कर। तू उसे साध। तेरे में पूर्ण विकसित होने की जो शक्ति विद्यमान है, वृक्ष से दूर होकर उस शक्ति को मत गंवा। - यह सत्य है कि तू वृक्ष का ही एक अंग है। तू स्वतन्त्र नहीं है। तू यह सोच कि क्या वृक्ष के बिना तू विकसित हो सकता था ? तू वृक्ष की शोभा है। तू भूमंडल की शोभा है। तू सहृदयालु व्यक्तियों की शोभा है । तू स्वर्ग की शोभा है। तुझे प्राप्त कर केशराशि मनोरम बन जाती है। हे कवियों के प्रिय सुमन ! तू सुमति का सहारा ले। __ देख, धीरे-धीरे बहने वाला यह पवन तेरे कान में कुछ गुनगुना रहा है। यह आज बार-बार तेरी शाखा के पास आता है। किन्तु भावुक सुमन ! तू याद रख, याद रख । यही एक दिन तेरी दुर्गति करेगा। तुझे यह मिट्टी में मिला कर स्वयं शीघ्र ही दूर भाग जाएगा। सुमन ! तू सिर पर धारण करने योग्य है।
तू भूमि-पतन का अभिवादन मत कर ।
यह वृक्ष अनुदार नहीं है कि दूसरे के विकास को आवृत कर दे । जब तू पूर्ण विकसित हो जाएगा, तब यह वृक्ष स्वयं तुझे स्वतंत्र कर देगा। माली आएगा। वह अपनी अंगुलियों से तुझे प्राप्त कर, माला में पिरोकर, महान् व्यक्तियों के गले में तेरा स्थान बना देगा। तब तू अमर हो जाएगा। सुमन ! तू इसी मार्ग को अपना और वृक्ष से लगा रह ।
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