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निमेषोन्मेषाः १३
आत्मा जडत्वमापन्नो, गता सरसता क्वचित् । ईक्षणां देहमात्मीयं,
दह्यमानं प्रपश्यताम् ॥१०॥ आत्मा जड़ हो गई। सरसता चली गई। तब ईक्षु का अपना शरीर जलने लगा। इसे तुम देखो और समझो।
विजेता
पराजितानामियमेव रीति
र्गालिप्रदानं सततं सृजन्ति । पराजितानामियमेव रीति
लिप्रदानं सततं सहन्ते ॥११॥ जो पराजित हो जाते हैं, उनकी यह विधि है कि वे सतत गाली देते रहते हैं । जो दूसरों के द्वारा विजित नहीं हैं, वे गालियों को सतत सहते रहते हैं ।
असंग्रह
बिन्दून् बिन्दून् गृहीत्वा सुमधुरपयसो जात एवासि सिन्धु:, गृण्हन् गहन् पुनर्वा दददपि च ददत् क्षार एवासि बन्धो ! अग्राहे बाह्यरूपं न भवति विपुलं किन्तु माधुर्यमत्र, वक्षो व्याप्नोति नूनं न वहन निवहः संग्रहे व्यत्ययो हि ।।१२।।
हे समुद्र ! तू मीठे पानी की एक-एक बूंद लेकर सिन्धु बना है । हे बन्धो ! तू जल का दान करके भी खारा बना हुआ है; क्योंकि तू संग्रह से विमुख नहीं है । जो बाहर से कुछ भी ग्रहण नहीं करता, उसका बाह्य रूप भले ही विपुल न हो, किन्तु वह मधुर होता है । जो व्यक्ति संग्रह करता है उसका बाह्य रूप विपुल हो सकता है, पर वह मधुर नहीं होता और उसकी छाती पर वाहन-समूह चलते रहते हैं।
सिन्धो ! साम्राज्यवादं व्यपनय नयत: शास्ति तंत्र प्रजानां, गृहन् दायं गिरिभ्योऽनुभवसि न शमं संग्रहोन्मत्तचेताः।
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