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१२ अतुला तुला
दम्भ
आयाता गगनाङ्गणे प्रगुणिता कादम्बिनी दम्भिनी, व्योम्ना स्थानमदायि सत्कृतियुतं प्राच्छाद्य सूर्यं स्थिता। सारस्यं समवप्रदाय परितो भूयो गता मेदिनी, क्षीणं नीरसमात्रमत्र कुणपं धिक् दम्भिनां चेष्टितम् ।।७।।
आकाश में यह दम्भिनी मेघमाला उमड़ आयी । आकाश ने सत्कार करते हुए उसे स्थान दिया। उसने सूर्य को आच्छादित कर दिया। चारों ओर से सरसता लेकर वह भूमि पर गिरी । वह क्षीण हो गई और अब मृत कलेवर मात्र रह गई। धिक्कार है दम्भी व्यक्तियों की चेष्टाओं को !
छिद्रम्
एणी वीणानादनद्धात्मकर्णा, स्फालालीनाप्याशुरूद्धक्रमाभूत् । सूक्ष्म छिद्रं गामुकत्वं रुणद्धि,
निश्छिद्रत्वं तेन काम्यं प्रगत्याम् ।।८।। वीणा बज रही थी । एक हरिणी जा रही थी। वह वीणा के स्वरों को सुनने में आसक्त हो गई । ऊंची छलांग भरने वाले उसके पैर रुक गए। उसके कान के एक छोटे-से छिद्र ने उसके गमन को रोक डाला। अत: प्रगति के लिए निश्छिद्रता काम्य है।
अवलेप
अब्ज ! भृङ्गावलिं वीक्ष्यावलिप्तं प्रेम वारिणा । मात्याक्षीस्तद् विना तूर्णं,
ह्यषाऽन्यत्र गमिष्यति ॥६॥ हे कमल ! मंडराती हुई भौंरों की पंक्ति से अवलिप्त होकर तू जल से नाता मत तोड़ । जल से संबंध तोड़ लेने पर यह भ्रमर-पंक्ति शीघ्र ही दूसरे स्थान पर चली जाएगी।
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