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निमेषोन्मेषाः ११
नींद ! तू उन दरिद्र मनुष्यों की ओर भी कुछ देख जो बिना वस्त्र के निरन्तर जी रहे हैं । तू ठंड से भयभीत होकर धनिकों के पास क्यों जाती है ? क्या तू नहीं जानती कि जो डरते हैं वे जड़ होते हैं ।
निमेषमाधाय निमेषभाजामथवा भवेत्
समेति निद्रा,
सा । कनीयः,
अप्यस्ति यत्रावरणं
तत्रैव जाड्यं च तमः प्रवेशि ||४||
नींद चक्षु के द्वार बंद कर आती है अथवा जिनके चक्षु के द्वार बंद होते हैं उनके पास आती है । ठीक ही होता है, जहां थोड़ा-सा आवरण है, जड़ता और अंधकार वहीं प्रवेश पाते हैं ।
स्नेह
वातस्पर्शं प्राप्य पत्राण्यपीषद्, शब्दं नृत्यं संसृजन्त्युच्छन्ति । पारस्पयें मौनभङ्गोपि न स्यात्, तत् किं स्नेहः साहचर्याद् बिभेति || ५ ||
वायु का स्पर्श पाकर ये पत्ते कुछ शब्द कर रहे हैं, नाच रहे हैं और उछल रहे हैं । परस्परता का संगम होने पर भी यदि मौनभंग न हो तो आत्मीयता का पता ही क्या चले ? वह क्या स्नेह जो साहचर्य से भय खाए ?
स्नेहोद्भूताडालोकलेखा
पुराभूत्,
नीरोद्भूता साम्प्रतं विद्युदेषा ।
स्नेहश्चेतः चिक्कणत्वं चिनोति, नीरं स्नेहक्षालि तत् स्नेहहानिः || ६ ||
प्राचीन काल में प्रकाश की रेखा स्नेह ( तँल) से उत्पन्न होती थी और आज वह पानी से उत्पन्न है । स्नेह चित्त को स्निग्ध बनाता है और नीर स्नेह का प्रक्षालन करता है । इसीलिए आज स्नेह की हानि दीख रही है ।
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