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२ : निमेषोन्मेषाः
शून्यम्
पूषाजस्र गाहते व्योम घस्रे, रावावेते तारकाः सञ्चरन्ति । लब्धा तेनैकापि नालोकरेखा,
नूनं न स्याच्छून्यतायां स्वतेजः ॥१॥ दिन में सूर्य आकाश का अवगाहन करता है और रात में ये तारे नभ में विचरण करते हैं, फिर भी आकाश ने एक भी प्रकाश-रेखा प्राप्त नहीं की। यह ठीक है कि शून्यता में अपना तेज नहीं होता।
आलोकमालां क्षिपतेंशुमाली, व्याप्नोति रुद्रा रजनी तमिस्रा। तमोपि तेजोपि समावकाशं,
करोति शून्यं तत एव शून्यम् ।।२।। दिन में सूर्य प्रकाश बिखेरता है और रात में सारा आकाश अन्धकार से व्याप्त हो जाता है। यह आकाश प्रकाश और अन्धकार को समान रूप से स्थान देता है। इसीलिए यह शून्य है।
निद्रा
निद्रे ! दरिद्रानपि पश्य किञ्चिद्, निर्वाससो ये निवसन्ति नित्यम् । किं शीतभीता धनिनोऽनुयासि, न वेत्सि भीता हि जडाः भवन्ति ॥३॥
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