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८ अतुला तुला
परस्स दिट्ठीइ निरिक्खमाणो,
अप्पाणमेवं परतंतिओ सि ॥२०॥ यदि मैं यह करूंगा तो लोग क्या समझेंगे-ऐसा जानकर तुम अच्छे कार्य को भी नहीं करते। इस प्रकार तुम दूसरे की दृष्टि को देखते हुए अपने आपको परतन्त्र बना डालते हो।
परस्स तोलामि अहं तुलाए, माणेण अन्नस्स नियं मिणामि । पासामि दिट्ठीइ परस्स चे हैं,
तो अस्थिभावो पि ण अप्पणोत्थि ।।२१।। मैं दूसरों की तुला से तोला जाऊं, दूसरों के माप से मापा जाऊं और दूसरों की दृष्टि से देखा जाऊं-इस प्रक्रिया में स्वयं का अस्तित्व-भाव भी नहीं रह जाता।
एएण सिद्धंतविणिच्छएण, अणे गवारं जडिला ठिईवि । उज्जूकया णेव मणं विसणं,
अत्थित्तमेवापि सुरक्खियं च ।।२२॥ इस सिद्धान्त को निश्चित कर मैंने अनेक बार जटिल स्थिति को भी सरल बनाया है । इस प्रक्रिया से मेरा मन भी विषण्ण नहीं हुआ और मैंने अपने अस्तित्व की भी पूर्ण सुरक्षा की।
पढियं गुणियं सुणियं, भणंतस्स होइ जंपिरा बुद्धी। जप्पंतस्सणुभूयं,
बुद्धी मोणं सयं समासेइ ।।२३।। जो व्यक्ति पढ़े हुए, अभ्यास किए हुए और सुने हुए की बात कहता है, उसकी बुद्धि वाचाल हो जाती है। और जो अपनी अनुभूत बात कहता है उसकी बुद्धि मौन हो जाती है।
सच्चं खु सक्खं भवई तया जया, सदस्स जालाविगओ भवामि हं।
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