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अप्पनिवेदणं
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ण जेण लद्धो चिअ अप्पणो पह,
पासं परं रुस्सइ तुस्सई सया ॥१६।। जिसके पास अपना प्रभु विद्यमान है, वह व्यक्ति कभी भी दूसरे के आश्रित हीं होता। जिसने अपने प्रभु को नहीं पाया, वह दूसरे को देखकर रुष्ट या तुष्ट होता रहता है।
आराहिओ होहिइ अप्पणो पहू, विराहिआ होहिइ खुद्दभावणा। आराहिआ होहिइ खुद्दभावणा,
विराहिओ होहिइ अप्पणो पहू ॥१७॥ जब अपने प्रभु की आराधना की जाती है, तब क्षुद्र भावना विराधित हो नाती है, नष्ट हो जाती है । जब क्षुद्र भावना की आराधना की जाती है तब अपने प्रभु की विराधना होती है।
पासं पियस्सावि जणस्स दोसे, गुणे य पासं तह अप्पियस्स । अप्पं सिणिद्धं पकरेमि नूणं,
कहेंति लूहं पवरं कहेंतु ॥१८॥ प्रियजन के दोषों और अप्रियजन के गुणों को देखकर भी मैं अपने आपको स्नग्ध-स्नेहमय बनाए रखता हूं। फिर भी मेरे अपने लोग मुझको 'रूक्ष' कहते ई, भले ही कहें।
गुणे हि पासं सययं पियस्स, दोसे हिं पासं तह अप्पियस्स । अप्पं सुलहं पकरेमि नणं,
परं सगा मं च कहेंतु निद्धं ॥१६॥ प्रियजनों के गुणों और अप्रियजनों के दोषों को देखकर मैं अपने आपको रूक्ष बना लेता हूं फिर भी मेरे अपने लोग मुझको 'स्नेहिल' कहते हैं, भले ही कहें।
नाहिंनि लोगा किमियं ति नच्चा, कज्ज सुकज्ज पि न तं करोसि ।
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