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६ अतुला तुला
जइत्थि पच्चक्खमिहं भवं लहू, तो विद्ध-आणं समतिक्कमाहि णो। फलाणुभूई स्स परं भविस्सई,
तया जया तं गुरुओ भविस्ससि ॥१२॥ यदि तुम प्रत्यक्ष ही छोटे हो तो वृद्ध जनों की आज्ञा का अतिक्रमण मंत करो। इसकी फलानुभूति तुम्हें तब होगी जब तुम स्वयं गुरु बनोगे।
अलद्धलक्खे मणसो पवित्ती, घणत्तमागच्छइ जारिसं च। न तारिसं गच्छइ लद्धलक्खे,
मए समंता अणुभूयमेयं ॥१३॥ लक्ष्य की उपलब्धि के काल में मन की प्रवृत्ति जितनी सघन होती है उतनी लक्ष्य के उपलब्ध होने पर नहीं होती। मैंने सभी क्षेत्रों में यह अनुभव किया है। तेणेव
सामण्णमुवागएण, लक्खं परं किंचिऽवधारणीयं । पस्सं जणो लक्खमपत्तमित्थ,
सयं तदहें धणियं पयाइ ॥१४॥ इसीलिए श्रामण्य में उपस्थित मुनि को किसी न किसी लक्ष्य का अवधारण कर लेना चाहिए। जब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी तब तक वह स्वयं बहुत अधिक प्रयत्न करता रहेगा।
तस्संधयारो दिवसे. वि अस्थि, निरिक्खिओ जेण महं न अप्पा। राओ वि तस्सत्थि महं पगासो,
निरिक्खिओ जेण महं णिअप्पा ॥१५॥ जिसने महान् आत्मा का निरीक्षण नहीं किया है, उसके लिए दिन में भी अंधकार है और जिसने अपनी महान् आत्मा का निरीक्षण किया है उसके लिए रात में भी महान् प्रकाश है।
जस्सत्थि पासे चिअ अप्पणो पहू, ण सो जणो णाम परस्सिओ सिया।
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