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अप्पनिवेदणं ५
अचक्खुगाणं इणमत्थि चक्खू, अपायगाणं चरणं इणं च । सद्धाविहीणस्स मणस्स देसे,
णो वारिहं वोत्तुमिणं ति भव्वं ।।८।। यह श्रद्धा नेत्रहीन व्यक्तियों के लिए नेत्र और चरणहीन व्यक्तियों के लिए चरण है । श्रद्धाविहीन मन के प्रदेश में यह भव्य है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
जो अत्तवीसासपगासपत्तो, तेणंधयारो सयलो वि तिण्णो। राओ वि णो तारिसमंधयारं,
संदेहयत्तस्स जहा दिणे वि ।।६।। जिसने आत्म-विश्वास का प्रकाश पा लिया उसने समचे अंधकार का पार पा लिया। रात्रि में भी वैसा अंधकार नहीं होता जैसा अंधकार दिन में भी संदेहशील व्यक्ति के होता है।
मणप्पसाओ विउलो जहत्थि, महं स सक्को वि परेण लद्धं । भवे उवालंभपरो न भावो,
अणिच्छिए वेस तउज्जुमग्गो ॥१०॥ जैसे मुझे मन की विपुल प्रसन्नता प्राप्त है, उसे दूसरा भी प्राप्त कर सकता है, यदि उसके मन में अनिश्चित वस्तु के प्रति उपालंभ या शिकायत का भाव न हो । प्रसन्नता की प्राप्ति का यह ऋजु मार्ग है।
जइत्थि पच्चक्खमिहं भवं महं तो पक्खपातं न पियस्स संसए । ण तुच्छगं सो कुणई महंतगं,
परं महंतं पि करेइ तुच्छयं ॥११॥ यदि आप वास्तव में महान् हैं तो प्रिय के प्रति पक्षपात न करें। क्योंकि पक्षपात तुच्छ व्यक्ति को महान् नहीं बना सकता, किन्तु महान् को तुच्छ बना डालता है।
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