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४ अतुला तुला
बहुस्सुओ भिक्खुवरो करेइ, गिलाणकज्ज - अगिलाणभावा। नाणं न सव्वत्थपवत्तगं जं,
सद्धापगासो परमोत्थि नाणा ॥४॥ बहुश्रुत भिक्षु ग्लान की सेवा अग्लान भाव से करता है। ज्ञान सभी अर्थों का प्रवर्तक नहीं होता। श्रद्धा का प्रकाश ज्ञान के प्रकाश से महत्त्वपूर्ण है।
तक्कप्पहाणो वि महामणीसी, बुडढस्स पुज्जस्स सुयप्पगस्स। आणं अखंडं पकरेइ सक्खं,
सद्धापगासो परमोत्थि नाणा ॥५॥ तर्क-प्रधान महामनीषी शिष्य भी अल्पश्रुत अपने वृद्ध पूज्य की आज्ञा का साक्षात् रूप से अखंड आराधन करता है। श्रद्धा का प्रकाश ज्ञान के प्रकाश से महत्त्वपूर्ण है।
णाणेण हं णाणुसओ म्हि णिच्चं, सद्धा उ णिच्चं अणुचारिणो मे। वत्तो पि हं तेण इणं च मन्ने,
सद्धापगासो परमोत्थि नाणा ॥६॥ ज्ञान ने मेरा सदा अनुसरण नहीं किया, किन्तु श्रद्धा सदा मेरी अनुचारिणी रही है। अतः मैं व्यक्त होने पर भी यह मानता हूं कि श्रद्धा का प्रकाश ज्ञान के प्रकाश से महत्त्वपूर्ण है।
न जत्थ नाणं कुणई पगासं, निच्चंधयारे गुविले मणस्स । तत्थावि सद्धा कुणई पगासं,
सद्धापगासो परमोत्थि नाणा ॥७॥ सदा सघन अन्धकार से व्याप्त मन के गहन जंगल में जहां ज्ञान प्रकाश नहीं कर पाता, वहां भी श्रद्धा प्रकाश फैला देती है। श्रद्धा का प्रकाश ज्ञान के प्रकाश से महत्त्वपूर्ण है।
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