________________
१ : अप्पनिवेदणं
सामण्णमेयं गहियं ति जाणे, किमट्ठमेयं गहियं न जाणे । नाणं न सव्वत्थपवत्तगं जं,
सद्धापगासो परमोत्थि नाणा ।।१।। 'श्रामण्य स्वीकार किया है'—यह मैं जानता हूं, किन्तु यह नहीं जानता कि मैंने श्रामण्य क्यों स्वीकार किया ? ज्ञान सभी अर्थों का प्रवर्तक नहीं होता। श्रद्धा का प्रकाश ज्ञान के प्रकाश से महत्त्वपूर्ण है।
बालत्तणे णाम अणिाच्छयत्थे, कज्ज कयं णो परिणामदंसी । मग्गावरोहो न कुहावि लद्धो,
सद्धापगासो परमोत्थि नाणा ॥२॥ निश्चय करने में अक्षम बचपन में मैंने अनेक कार्य किए हैं। मैं उस समय परिणामदर्शी नहीं था। फिर भी मेरा मार्ग कहीं भी अवरुद्ध नहीं हुआ। श्रद्धा का प्रकाश ज्ञान के प्रकाश से महत्त्वपूर्ण है।
विसिट्ठनाणी वि विणीयसीसो, अच्चं च निच्चं गुरुणो करेइ। नाणं न सव्वत्थपवत्तगं जं,
सद्धापगासो परमोत्थि नाणा ॥३।। विनीत शिष्य विशिष्ट ज्ञानी होने पर भी सदा गुरु की अर्चा करता है। क्योंकि ज्ञान सभी अर्थों का प्रवर्तक नहीं होता। श्रद्धा का प्रकाश ज्ञान के प्रकाश से महत्त्वपूर्ण है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org