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३ : आचार्यस्तुतिः
त्वय्यासक्तो भवति भगवन् ! नैष लोको हि रक्तो, रक्तोऽन्यस्मिन् भवति सहसा त्यक्त एव त्वयाऽपि । पक्षोपक्षिण्यपि भवति यत्तद् विचित्रं क्व चित्रं, रङ्गाजीवो नभसि न नयेत्तूलिकां रङ्गलिप्ताम् ॥ १॥
भगवन् ! जो व्यक्ति आप में आसक्त हो जाता है, वह दूसरों में रक्त नही होता । जब वह आपसे व्यक्त होता है, तभी वह दूसरे पदार्थों के प्रति रक्त होता है ! जो अपक्षपाती है उसमें भी यदि पक्षपात होता है तो वह आश्चर्य है | चित्रकार रंग से लिप्त अपनी तूलिका को शून्य आकाश में न चलाए इसमें आश्चर्य ही क्या है । पथि पथि नयन् हृदयशुभभावैः
सदुत्साहाहूतः प्रतीक्षामारूढो
वितन्वन्नामोदं
सत्कृतिभरं, परिवृतः ।
प्रवरतरकाव्यैरभिहितः,
समायातः
श्री तुलसिगणिपट्टोत्सव
इव ॥२॥
आज आचार्य तुलसी का पट्टोत्सव है । वह सद् उत्साह से आमंत्रित, पगपग पर सत्कार का भार वहन करता हुआ, प्रतीक्षा के पंखों पर आरूढ़, हृदय के शुभ भावों से परिवृत, आमोद को बिखेरता हुआ और सुन्दर काव्य- कल्पनाओं से वर्णित है ।
सञ्चालनपरः ।
गतिं धर्मोऽधर्मः स्थितिमिव नभो वाश्रयमिव, ददत्संघस्योच्चैः समय इव प्रयच्छन् व्यापारं सकलमपि वा पुद्गल इवानुभूति चैतन्यं ध्रुवमिह जयन्नस्ति तुलसीः || ३ ||
आचार्य तुलसी विश्व निर्माण के घटक छह तत्त्वों के रूप में प्रतिष्ठित हैं । वे धर्मास्तिकाय के रूप में संघ को गतिशील, अधर्मास्तिकाय के रूप में स्थिति
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