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१८६ अतुला तुला प्रकार तुम्हारा स्मरण करने में मुझे संकोच का अनुभव होता है, वैसे ही मेरे हृदय में आने में तुम्हें संकोच होता तो तुम्हारा निवास" मेरे हृदय में कैसे होता?
यस्य त्वं हृदयंगमो विधियुतं तस्यास्ति सार्थं जगद्, यस्माद्दूरमुपैसि वासमनिशं व्यर्थं च तस्यास्ति तत् । यस्य त्वं प्रियतां गतः स्थिरमतेस्तस्य प्रियो नाऽपरो,
यो वा न त्वयि रज्यते खलु स को मुह्यत्यशेषेष्वपि ॥४॥ देव ! तुम जिसके हृदय में स्थित हो गए, उसके लिए यह जगत् सार्थक है. और तुम जिसके हृदय से दूर हो गए, उसके लिए यह जगत् अर्थहीन है। देव ! जिसके तुम प्रिय बन गए, उस स्थिरमति के लिए दूसरा कोई प्रिय नहीं रहता। जो तुममें रक्त नहीं होता वह दूसरी सभी वस्तुओं में आसक्त हो जाता है।
नष्टा मोहविडम्बना क्षणभरात्स्पष्टा च चेतःस्थली, साक्षात्कारमुपागतः सफलतां याता च हल्लालसा। तत्कष्टान्यपि सत्करोमि सुतरां पर्याप्तमेतैः सुखै
फैर्जाता तव विस्मृतिश्चिरमहो मोहः समुज्जृम्भितः ॥५॥ भगवन् ! मैं उन कष्टों का सत्कार करता हूं, जिनके कारण मेरा मोह नष्ट हो गया; मेरा चित्त प्रसन्न हो गया; मुझे आपका साक्षात्कार मिला और मेरी मनोकामना सफल हुई। उन सुखों से क्या, जिनके कारण मैं आपको भूल गया और मेरे में मोह का उदय हो आया।
वेपन्ते तरवोऽरुणा दशदिशो भूः कम्पते भूरिशः, सर्वेऽमी भवनोदरे प्रसृमरा भावाः क्षणे भंगुराः। कामा मानसजा अमी विषसमाः कोऽन्यः शरण्यो मम,
बन्धो ! दीनजनस्य हे ! शिशुमिमं मां पाहि पाहि प्रभो! ।।६।। भगवन् ! सारे वृक्ष कंपित हो रहे हैं। दसों दिशाएं लाल हो रही हैं। बार-बार भूचाल हो रहा है। संसार के ये सारे पदार्थ क्षणभंगुर हैं । मन में उत्पन्न होने वाली कामवासना विष के समान है। ऐसी स्थिति में देव ! आपके सिवाय मुझे दूसरा कौन शरण दे सकता हैं ? हे दीनबन्धु ! इस बालक की आप रक्षाः करें।
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