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६ : आत्मदर्शन-चतुर्दशकम् अदृश्याः संदृष्टाः श्रुतमपि हहा ! ऽश्राव्यमनिशमनास्वाद्ये स्वादः सततमनुभूतो जडधिया। असंस्पृश्याः स्पृष्टाः कथमहमहो देव ! विदधे,
हृदा साक्षात्कारं ध्रुवमिति गतो न स्मृतिमपि ॥१॥ भगवन् ! मैं जड़बुद्धि वाला हूं। जिसे नहीं देखना चाहिए मैंने उसे देखा, जिसे नहीं सुनना चाहिए उसे सुना, जिसका स्वाद नहीं लेना चाहिए उसका स्वाद लिया और जिसका स्पर्श नहीं करना चाहिए उसका स्पर्श किया। मैं हृदय से आपका साक्षात्कार कैसे करूं—इसकी मुझे कोई स्मृति भी नहीं रही।
विभावान्निःशेषान् मनसि विनिधातुं प्रतिपलं, स्वभावं हा ! हातुं बहुविधमलं यत्नमकृषि । न जानेऽकस्मात्त्वं तदपि हृदये वासमकृथा,
महान्तो वात्सल्यं जहति न हि कुत्रापि विदितम् ॥२॥ देव ! मैंने अपने मन में सभी विभावों को संजोए रखने के लिए तथा स्वभाव को छोड़ने के लिए बहुत-बहुत प्रयत्न किए हैं। फिर भी न जाने क्यों तुमने अकस्मात् मेरे हृदय में वास कर लिया। हां, यह सच है कि महापुरुष अपने किए हुए वात्सल्य को नहीं छोड़ते।
कियद् रम्यं जातं वसति हृदये त्वं मम सुखं, गता दूरं चिन्ता सुकृतसरितः संगमगमम् । यथा त्वां संस्मतु मनसि मम संकोचपरता,
तथाऽत्रागन्तुं चेदपि तव ततः क्वासनमिह ॥३॥ देव ! यह कितना अच्छा हुआ कि तुम मेरे हृदय में सुखपूर्वक निवास करते हो । मेरी सारी चिन्ताएं दूर हो गई और मैं पुण्य की सरिता से जा मिला। जिस
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