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तेरापंथचतुर्विंशतिः १७६ विनीतः संकेतः कतिपयवचोन्यासमधुर,
इव प्रत्याशां तां फलयितुमभूत्प्रादुरभितः ।।११।। इतने में ही कोमल और उद्वृत्त वायु बहने लगी। मेघ को अपने कर्तव्य का भान हुआ । उसका उच्छ्वास सारे नभोमंडल का स्पर्श कर गया। उसे शब्दात्मक संकेत मिला। वह मधुर और विनीत संकेत मानो कि उसकी प्रत्येक आशा को फलवती करने के लिए उत्पन्न हुआ हो।
(भिक्षु को निराश देखकर उसके साथ वाले दो मुनि-थिरपाल और फतेचन्द उनके सामने आए और उन्हें तपस्या से अपने आपको मिटा देने की बात को छोड़ धर्म-प्रचार के लिए विनीत भाव से प्रेरित किया। यह सुन भिक्षु को लगा कि उनकी सभी आशाओं के पूर्ण होने का संकेत उनमें निहित है।)
यदि त्वं संकोचं सृजसि तनुषोऽम्भोधरवरः, तदानीं लोकात्ति कथय हरते कः कृतिवरः । इदं कि नो चिन्त्यं चतुरवर ! सत्यम्भसि तव,
तृषाशङ्कातङ्को विलसति जनानामधिमनः ॥१२॥ वायु ने मेघ से कहा-हे मेघ ! यदि तुम अपने शरीर का संकोच करते हो, बरसने से निराश होते हो तो बताओ लोगों की पीड़ा कौन हरण कर सकेगा? हे चतुर मेघ ! क्या यह चिन्तनीय नहीं है कि तुम्हारे पास पानी होते हुए भी जनता का मन प्यास की आशंका से भयभीत रहे ?
(मुनिद्वय ने आचार्य भिक्षु से कहा-मुनिवर ! यदि आप विरत होते हैं तो बताएं कि लोगों का दुःख कौन दूर कर सकेगा? आपके पास सामर्थ्य होते हुए भी यदि जनता की धर्म की प्यास नहीं बुझ सकी तो क्या यह चिन्तनीय नहीं है?)
करालोऽयं कालः कलिरवनिखण्ड प्रणयति, ततो मुग्धा दग्धा मयि निदधते नैव पटुताम् । स्पृशन्त्येवं नापि प्रणयनिकुरम्बेङ्गितपराः,
.. कथंकारं कार्यः पवन ! परिहारोऽपि च तृषः ॥१३॥ मेघ ने कहा-'पवन ! यह कराल कलिकाल सारी पृथ्वी को अपने चंगुल में फंसा रहा है । इसलिए लोग मूढ और दग्ध हो चुके हैं। वे मेरे में कोई उत्साह नहीं दिखाते । वे कलिकाल के प्रणय के इंगितों पर चलते हैं अत: मेरा स्पर्श भी करना नहीं चाहते। ऐसी स्थिति में पवन ! मैं उनकी प्यास कैसे बुझा सकता हूं!
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