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१७८. अतुला तुला
होते हुए भी मेघ को न देख सकें और शीत स्पर्शवाली उन बूंदों का स्पर्श भी न कर सकें ।
(लोगों में अज्ञान घर कर गया था । उनका विवेक नष्ट हो चुका था । वे भिक्षु को सत्यपथगामी मानते हुए और देखते हुए भी नहीं देखते थे और उनके धर्म का स्पर्श भी नहीं करते थे ।)
नवा द्रष्टुं स्प्रष्टुं कथमपि च शेकुस्तनुभृतः, पिपासापोहः किं भवतु तदवस्थः सुविदितम् । निराशा संजज्ञे सकृदहह किञ्चिज्जलमुचः, प्रतीकारः कोयं कुटिलटलानामभिनवः ||
लोग मेघ को देखने या उसकी बूंदों का स्पर्श करने में समर्थ नहीं हुए। ऐसी स्थिति में उनकी प्यास कैसे बुझ सकती थी ! मेघ को क्षणभर के लिए निराशा हुई। कुटिल और जटिल बने हुए कलिकाल का यह कैसा नया प्रतिकार ?
( भिक्षु ने देखा, लोग उनके पास आने से कतराते हैं । कोई उन्हें नहीं सुनता । उनके मन में निराशा हुई और उन्होंने तपस्या कर अपने आपको लक्ष्य के लिए खपा देने की बात सोची । )
घनः स्वस्मिल्लीनः सघनसलिलापादिशमथः, स्वकीयं वैशद्यं प्रथितुमविकल्पं कुवलये ।
क्षपां कार्योन्मुख्याद् विरतिमभिभेजे कथमिव,
चिरं मोदं लेभे कलिरपि कलाकौशल धिया ॥ १० ॥
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अपने सघन सलिल से शान्ति उत्पन्न करने वाला मेघ निराश होकर अपने आप में लीन हो गया । अपनी विशदता को भूवलय पर फैलाने के कार्य से वह विरत हो गया । यह देखकर अपने कला-कौशल पर नाज करता हुआ कलिकाल बहुत प्रसन्न हुआ 1
( भिक्षु निराश होकर तपस्या में लग गए । धर्म की पवित्रता का प्रचार करने से विरत होकर एकान्त में रहने का उन्होंने निश्चय किया। यह देखकर विरोधी लोग बहुत प्रसन्न हुए । )
मृद्वृत्तो वातः प्रकटमवदातः प्रतिववौ, स्वकर्त्तव्योच्छ्वासः सकलचरणस्याञ्चलमगात् ।
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